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ओआरएफ “इन-कन्वर्सेशन” - भारत-यूरोपीय संघ संबंधों के भविष्य पर विदेश मंत्री और पुर्तगाल के विदेश मंत्री (जून 23, 2021)

जून 23, 2021

समीर सरन: इस वार्ता में भारत से हमारे साथ जुड़े सभी साथियों को गुड आफ्टरनून और हमारे यूरोपीय दोस्तों को सुप्रभात। हमें इस बात की बेहद खुशी है कि पुर्तगाल के विदेश मंत्री महामहिम प्रोफेसर ऑगस्टो सैंटोस सिल्वा और भारत के विदेश मंत्री महामहिम डॉ. एस. जयशंकर जी आज मौजूदा वक्त के सबसे प्रासंगिक विषय यानि "भारत-यूरोपीय संघ संबंधों के भविष्य" पर होने वाली इस विशेष बातचीत में हमारे साथ जुड़े हैं। सबसे पहले तो मैं, महामहिम को अपने व्यस्त कार्यक्रम से समय निकालकर हमारे साथ जुड़ने के लिए धन्यवाद देता हूं। प्रोफेसर सिल्वा, डॉ. जयशंकर जी आप दोनों को बधाई और हार्दिक स्वागत है।

आज हम भारत-यूरोपीय संघ के संबंधों पर नज़र डालेंगे, जिसके बीच के द्विपक्षीय संबंधों को हमारे साथ यहां मौजूद दोनों नेताओं ने महामारी के दौरान विगत छह महीनों में एक नई गति प्रदान की है। उनकी कोशिशों की वजह से ही यूरोपीय संघ और उसके सदस्य देशों के नेताओं ने 8 मई को पुर्तगाल में भारतीय प्रधानमंत्री के साथ बैठक संभव हो सकी। यह हाइब्रिड कार्यक्रम महत्वाकांक्षी और उल्लेखनीय रहा, और हम आज की बातचीत में इसके महत्व पर भी चर्चा करेंगे। यह सत्र पुर्तगाल के यूरोपीय संघ का अध्यक्ष रहने के दौरान ओआरएफ द्वारा आयोजित भारत-यूरोपीय संघ चर्चाओं की श्रृंखला का अंतिम कार्यक्रम है। हम राजदूत मार्केस के नेतृत्व में भारत स्थित पुर्तगाल के दूतावास के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। ओआरएफ की तरफ से हम उन्हें और उनकी टीम को इस साझेदारी और उनकी अगुवाई के लिए धन्यवाद देते हैं। विगत कुछ महीनों में, हमने अपनी डेटा समृद्ध दुनिया से संबंधित डिजिटल अर्थव्यवस्था पर हरित परिवर्तन पर ध्यान केंद्रित चर्चा का आह्वान किया, जिसमें महामारी की वजह से सामने आई सामाजिक आर्थिक चुनौतियों पर विचार-विमर्श और और आर्थिक सुधार शामिल हैं, जिससे निपटने के लिए दुनिया एकजुट हो रही है। इनमें से कुछ विचार-विमर्श उन सवालों से भी संबंधित हैं जो हम आज दोनों मंत्रियों से पूछना चाहते हैं। इससे पहले कि हम आगे की घोषणा करें, जो लोग हमारे डिजिटल इवेंट प्लेटफॉर्म में लॉग इन के माध्यम से जुड़े हैं, कृपया अपनी स्क्रीन पर चैट विंडो पर दो वक्ताओं से अपने प्रश्न पूछें, और जैसे-जैसे हम आगे बढ़ेंगे हम इन प्रश्नों को इस बातचीत में शामिल करने का प्रयास करेंगे। अबतक 1000 से अधिक लोगों ने प्लेटफार्म पर रजिस्ट्रेशन किया है, इसलिए मैं आग्रह करुंगा कि कृपया रजिस्ट्रेशन के ज़रिए हमसे अधिक से अधिक संख्या में जुड़े। अब मैं इस बातचीत के व्यावसायिक पहलू पर आता हूं और मेरा पहला सवाल भारतीय विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर से है। महोदय, भारत-यूरोपीय संघ के संबंधों को पिछले साल जुलाई में हुए शिखर सम्मेलन के बाद एक गति मिली है। इस शिखर सम्मेलन की सफलता में पुर्तगाल की अध्यक्षता ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। संबंधों में एक नया उत्साह और एक नई ऊर्जा देखने को मिल रही है। और हमने इस मई में भारत के यूरोपीय संघ के नेताओं की बैठक में बहुत अच्छे परिणाम देखें, विशेष रूप से व्यापार और निवेश पर बातचीत को फिर से शुरू करने के निर्णय के संदर्भ में। विदेश मंत्री जी, हाल के दिनों में इसमें क्या बदला है? हम भविष्य में और क्या उम्मीद कर सकते हैं? आपने भारत और पश्चिमी शक्तियों के बीच जुड़ाव की एक नई संरचना ढांचे के बारे में लिखा है। ये मौजूदा घटनाक्रम को संरचना में कैसे देखते हैं जिसके बारे में आपने हाल ही में अपनी किताब में लिखा है?

डॉ. एस. जयशंकर, विदेश मंत्री: सबसे पहले, समीर को आपको बधाई और मुझे अपने पुर्तगाली सहयोगी को एक बार फिर से स्क्रीन पर ही सही, लेकिन देखकर बहुत अच्छा लगा। लेकिन अभी हम ऐसे ही मुलाकात कर सकते हैं। देखिए, यूरोपीय संघ के साथ हमारे संबंधों में बीते छह महीने बेहद महत्वपूर्ण रहे हैं। और मैं पूरी ईमानदारी से इसके लिए पुर्तगाल की अध्यक्षता को अहम मानता हूं। और मैं आपको बताना चाहूँगा कि ऐसा क्यों है। हमारे संबंध एक नए स्तर पर पहुंच गए हैं, इसमें अधिक गति, अधिक ऊर्जा देखी जा रही है। प्रधानमंत्री मोदी और यूरोपीय संघ के सभी नेताओं के बीच एक बहुत ही महत्वपूर्ण आभासी शिखर सम्मेलन का आयोजन किया गया। और इस दौरान हमने कुछ बहुत ही महत्वपूर्ण निर्णय लिए। इसमें से एक व्यापार और निवेश समझौते पर बातचीत को पुनः शुरु करना है, और मैं इसे पूरी तरह से एक राजनयिक निर्णय मानता हूं, इसमें बहुत काम हुआ है, हम एक ऐसे स्तर पर पहुंच गए, जहां हम ऐसा करने को लेकर आश्वस्त हैं। हमने कनेक्टिविटी साझेदारी पर भी काम किया है। हमने महसूस किया है कि यूरोपीय संघ दुनिया के अपने हिस्से के साथ बहुत अधिक जुड़ाव रखता है, और इसमें आप इंडो-पैसिफिक दृष्टिकोण को बहुत गंभीरता से देख सकते हैं। और इसी सबकी वजह से ऐसा संभव हो सका है, और बहुत अधिक श्रेय पुर्तगाल की अध्यक्षता को जाता है, विशेष रूप से उनको जिसके साथ मैं अभी स्क्रीन साझा कर रहा हूं। लेकिन मैं चाहूंगा कि आप विदेश मंत्रालयों या विदेश मंत्रियों के रूप में सोचें। इन सभी का क्या मतबल है? मेरे लिए, इसका मतलब है कि आज देखें कि भारत और आपके बीच क्या हो रहा है, हम दोनों एक तरह से रिश्ते के एक नए स्तर तलाश रहे हैं, जिसके लिए मैंने अपनी पुस्तक में एक नए शब्द ‘कॉम्पैक्ट’ का इस्तेमाल किया है, जो बहुत अधिक बहुध्रुवीय दुनिया को दर्शाता है, जिसका अर्थ है ‘शक्ति के अधिक केंद्र’। इसमें यह ध्यान में रखा गया है कि दुनिया वह नहीं रही, जो 2016 में थी। और न तो यूरोप, और न ही एशिया पहले जैसे हैं। और, कुछ अन्य महाद्वीप, जो कहीं अधिक पुनर्संतुलित है, जिसमें क्षेत्रों का सापेक्षिक भार है, वह स्थानांतरित हो गया है, और जिसकी वजह से आज हमारे सामने एक नया एजेंडा आ चुका है। देखिए, यूरोपीय संघ का अपना एजेंडा है, जिसमें एशिया के साथ बहुत अधिक जुड़ाव शामिल है; हमारा अलग एजेंडा है, जिसमें यह देखा जाता है कि इस संबंध से राष्ट्रीय विकास में कैसे मदद मिल सकता है। यानि कुल मिलाकर मैं इसे एक सर्वकालिक एजेंडा, एक अधिक कनेक्टिविटी केंद्रित एजेंडा, एक अधिक डेटा केंद्रित एजेंडा, एक अधिक तकनीक संचालित एजेंडा कह सकता हूं, और वास्तव में यही बदलवा आया है। और मेरे विचार में, कहीं न कहीं, नए कॉम्पैक्ट में इन सब बातों का ध्यान रखना होगा।

समीर सरन: इन दो अन्य घटनाओं के संदर्भ में इन सबकी क्या मायने हैं? जिसमें से एक, निश्चित रूप से, चीन का उदय, वैश्विक मामलों में उसका प्रभाव, विभिन्न बाजारों में उसकी उपस्थिति है। और दूसरा, वाशिंगटन में एक नया प्रशासन, इनमें से कई विकासों में राष्ट्रपति बिडेन का प्रभाव क्या है, जिसमें निश्चित रूप से यूएस और यूरोपीय संघ भी शामिल हैं?

डॉ. एस. जयशंकर, विदेश मंत्री: देखिए, दुनिया का एक संदर्भ है। मेरा मतलब है कि अगर दुनिया के किसी हिस्से में कोई बड़ा बदलाव होता है, तो अन्य देशों और अन्य क्षेत्रों पर भी इसका असर होता है। इसलिए इस बात में कोई शंका नहीं है कि, विशेष रूप से पिछले 10 वर्षों में, या पिछले 25 वर्षों में, चीन का उदय परिवर्तनकारी प्रवृत्तियों में से एक रहा है। इसलिए, इसको हर कोई ध्यान में रखेगा। यह बहुत स्वाभाविक बात है। और जहां तक इसमें संयुक्त राज्य अमेरिका की भूमिका का सवाल है, विशेष रूप से बाइडेन प्रशासन के संदर्भ में? तो यह दिलचस्प है कि केवल छह महीने में ही बिडेन प्रशासन को इस बात का अनुमान हो गया है कि दुनिया वास्तव में बहुध्रुवीय है, और यह कई अन्य देशों और क्षेत्रों तथा ब्लॉकों और समूहों से बनी है, और यह साथ मिलकर काम करने हेतु पूरी तरह से खुली हुई है। हमारे यूरोपीय मित्र भी शायद इस बात से सहमत होंगे। और मेरे हिसाब से इसका एक और समकालीन एजेंडा भी है। इसलिए हमारे लिए, यानि भारत के संदर्भ में, हमने इन छह महीनों में अमेरिका के साथ अपने संबंधों को आगे बढ़ते हुए देखा है, और ये संबंध इस तरह से आगे बढ़े हैं कि इसमें यूरोप को विशेष महत्व दिया जाएगा।

समीर सरन: धन्यवाद, मंत्री जी। अब मैं पुर्तगाल के विदेश मंत्री से कुछ सवाल पूछना चाहूंगा। महोदय, आपने इसके बारे में लिखा भी है, हम में से ज्यादतर लोग इस बात से अवगत हैं कि सबसे पुरानी इंडो-पैसिफिक रणनीति 16वीं और 17वीं शताब्दी से पुर्तगालियों से संबंधित रही है। और, हम यह भी जानते हैं कि पिछले डेढ़ सालों में पुर्तगाल ने भारत-यूरोपीय संघ की साझेदारी में नई जान फूंकने हेतु बहुत काम किया है। इस क्षेत्र के साथ अपने पुराने ऐतिहासिक संबंधों को देखते हुए आप इसे कैसे आगे बढ़ते हुए देखते हैं? आप आने वाले दिनों में किन अवसरों की उम्मीद करते हैं? इसमें क्या चुनौतियां हैं? और आप अपनी अध्यक्षता और पिछले शिखर सम्मेलन से परे भारत पुर्तगाली साझेदारी का किस तरह से आकलन करते हैं?

प्रोफेसर ऑगस्टो सैंटोस सिल्वा: आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। सबसे पहले, इस संगोष्ठी में भाग लेने के निमंत्रण हेतु आपका धन्यवाद। और मैं अपने प्रिय मित्र, भारत के विदेश मंत्री, डॉ. जयशंकर को हार्दिक बधाई देता हूं, और आपने न केवल पुर्तगाल और भारत के बीच द्विपक्षीय संबंधों को सुधारने में, बल्कि यूरोपीय संघ और भारत के बीच के द्विपक्षीय संबंधों को बेहतर बनाने में जो काम किए हैं, उसके लिए आपको धन्यवाद देता हूं। मेरी राय में, पुर्तगाल की भूमिका यहां विशिष्ट है, क्योंकि हम एक यूरोपीय देश होने के साथ-साथ यूरोपीय संघ से भी जुड़े हुए हैं, लेकिन हम खुद को यूरोप से परे भी स्थापित कर रहे हैं, इसकी वजह हमारा इतिहास, और हमारे संबंध हैं, और हम लैटिन अमेरिकी देशों के साथ, अफ्रीका के साथ, भारत के साथ, और फिर वर्तमान अंतरराष्ट्रीय स्थिति में प्रमुख खिलाड़ियों के साथ विकसित हो रहे हैं। इसलिए मैं ब्रसेल्स में मौजूद अपने सहयोगियों से हमेशा कहता हूं कि अगर आपको किसी मध्यस्थ की जरूरत हो, अगर आपको किसी ऐसे की जरूरत है जो एक ही वक्त में लैटिन अमेरिका, या अफ्रीका, भारत या चीन के साथ जुड़ कर सके, तो इसके लिए पुर्तगाल को चुनें, क्योंकि पुर्तगाल ही एक ऐसा यूरोपीय देश है जो ऐसी मध्यस्थता कर सकता है। एक यूरोपीय नागरिक के रूप में, मेरी सोच बहुत सरल है। हम अभी बहुध्रुवीय दुनिया में रहते हैं, जैसा कि भारतीय मंत्री ने अभी कहा, और यह बिल्कुल सही है। और अगर हम इस बहुध्रुवीय दुनिया में वैश्विक खिलाड़ियों की बात करते हैं, तो इसमें यूरोपीय संघ और ब्रिटेन आते हैं, क्योंकि ब्रिटेन अब यूरोपीय संघ से संबंधित नहीं है, लेकिन यह यूरोप का हिस्सा है, जहां संयुक्त राज्य अमेरिका स्थित है, यहां कुछ क्षेत्र और भी हैं जिन्हें आप इस ब्लॉक का हिस्सा मान सकते हैं। इसका एक उदाहरण अफ्रीका है। और अफ्रीकी संघ हमारा एक प्रमुख भागीदार है। लैटिन अमेरिका इसका एक और उदाहरण है। एशिया, एशियाई या दक्षिण पूर्व एशियाई, दक्षिण पूर्व देश इसके अन्य उदाहरण हैं। फिर वो देश आते हैं, जो आपके लिए महत्व रखते हैं। यानि जनसांख्यिकी के संदर्भ में, अर्थव्यवस्था के संदर्भ में, राजनीति के संदर्भ में, वैश्विक खिलाड़ी मौजूद हैं, जिसमें भारत भी शामिल है। और फिर एशिया में कोरिया, या जापान, या ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, और कई अन्य जैसे देश आते हैं, जो यूरोप के पारंपरिक सहयोगी हैं, जो यूरोप के जैसे ही चीन के लिए भागीदार, प्रतिस्पर्धी और प्रतिद्वंद्वी भी हैं। और पुर्तगाली के रूप में हमारा आकलन, हमारा विचार यह रहा है कि यूरोपीय संघ भारत पर बहुत कम ध्यान दे रहा था, जितना कि उसे देना चाहिए। और यह केवल पुर्तगाल का आकलन नहीं था, क्योंकि हम अमेरिका को इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के लिए अपनी रणनीति तैयार करते हुए देख रहे हैं, आप देख सकते हैं कि ब्रिटेन इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के साथ अपने संबंधों में सुधार कर रहा है। और नीदरलैंड या जर्मनी जैसे यूरोपीय संघ के कुछ सदस्य राज्य भी अपनी राष्ट्रीय रणनीति तैयार कर रहे हैं। इसलिए हमें इस मुद्दे पर यूरोपीय स्तर पर भी ध्यान देने की जरूरत है। और पिछले महीने पोर्टो में वर्चुअल प्रारुप में हुई नेताओं की बैठक का यही उद्देश्य था। और यूरोपीय संघ-भारत शिखर सम्मेलन के मुख्य परिणाम, राजनीतिक थे, यानि दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतंत्रों, भारत और यूरोपीय संघ के बीच उच्च स्तरीय वार्ता को पुनः शुरु करना। क्षेत्रीय भागीदारी में सुधार, जो कनेक्टिविटी साझेदारी, और आर्थिक वार्ता जैसे क्षेत्रों के बहुत महत्वपूर्ण हैं, लेकिन विदेश मंत्री के रूप में, ये परिणाम राजनीति स्तर पर पहले हैं, क्योंकि हमें इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में सुरक्षा की दृष्टि से, नौवहन की स्वतंत्रता की दृष्टि से, आर्थिक संबंधों की दृष्टि से अधिक ध्यान देने की जरुरत है। और इसके लिए हमें भारत को अपने सबसे करीबी साझेदारों में से एक मानना ​​होगा। धन्यवाद।

समीर सरन: मंत्री जी, दर्शकों की तरफ से जनरल दीपक कपूर ने एक सवाल पूछा है। उनका सवाल आपने अभी जो बातें कहीं, उससे संबंधित है। उन्होंने पूछा है कि इन क्षेत्रों में चीन के बहुत उग्र व्यवहार को लेकर यूरोपीय संघ की प्रतिक्रिया क्या होगी, जो लगभग हम सभी के लिए महत्वपूर्ण हैं। आपने यहां कई अलग-अलग देशों और क्षेत्रों का जिक्र किया है। क्या चीन के विस्तार पर प्रतिक्रिया देने के संदर्भ में यूरोपीय संघ की क्या स्थिति है? यही उनका सवाल है।

प्रोफेसर ऑगस्टो सैंटोस सिल्वा: हाँ, वास्तव में। और इस नई चुनौती से निपटने हेतु हमारे पास दो संरचना हैं, जिसमें पहला यूरोपीय संघ और दूसरा नाटो है। सबसे पहले नाटो की बात करते हैं, नाटो यूरोप और उत्तरी अमेरिका के बीच एक राजनीतिक सैन्य गठबंधन है। और हमने इसी महीने ब्रसेल्स में एक शिखर सम्मेलन किया है। और हमने चीन के प्रति अपनी स्थिति को पुनः परिभाषित किया। हम यह भी मानते हैं कि चीन के उदय से निश्चित रूप से, कुछ अवसर खुले हैं, लेकिन इसकी सुरक्षा को चुनौती भी है जिसे हमें हल करना है। यह हमारी आधिकारिक स्थिति है; मुझे लगता है कि यह बहुत संतुलित है। हम चीन को खतरे के रूप में नहीं देख रहे हैं। लेकिन हम चीन के उदय को चुनौती और सुरक्षा की चुनौती के रूप में जरुर देख रहे हैं। इसलिए हमें इस पर ध्यान देना होगा, और हमें संयुक्त राज्य अमेरिका, यूनाइटेड किंगडम, यूरोपीय संघ के साथ-साथ एशिया, जापान, भारत, या ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड में हमारे भागीदारों के साथ मिलकर इस मुद्दे पर विचार करना होगा। इसलिए हमें सावधानी बरतनी होगी, क्योंकि सुरक्षा के मसले हमेशा से पेचीदा रहे हैं। लेकिन हमें इस नई वास्तविकता को संबोधित करना होगा। यूरोपीय संघ के दृष्टिकोण से, चीन के साथ हमारे संबंध जटिल और बहुआयामी हैं, क्योंकि चीन कुछ क्षेत्रों में हमारा घनिष्ठ भागीदार भी है। अगर आप जलवायु कार्रवाई की बात करें, तो आप प्रतिबद्धता और चीन के साथ जुड़ाव के बिना पेरिस समझौते के वैश्विक लक्ष्यों को हासिल नहीं कर सकते। और इसी तरह इसमें भारत और अन्य बड़े देशों की भागीदारी भी महत्वपूर्ण। इसलिए हमें उनके साथ मिलकर काम करना है और हम उनके साथ मिलकर ही काम कर रहे हैं। इसलिए हम एक तरीके से चुनिंदा भागीदार हैं, यानि कि कुछ क्षेत्रों में, कुछ मुद्दों पर हमारे बीच सहयोग है जो दोनों पक्षों के लिए लाभकारी है। उदाहरण के लिए, अगर आप तकनीकी विकास, और अक्षय ऊर्जा व अन्य क्षेत्रों की बात करें, तो आप देख सकते हैं कि हम इनमें आपसी लाभ के आधार पर सहयोग कर सकते हैं। हमारे बीच प्रतिस्पर्धी भी है, हम लैटिन अमेरिका में चीन के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं, हम अफ्रीका में चीन के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं, और यहां हमारे व्यापार संबंध असंतुलित हैं। हमें यूरोप के व्यापार संबंधों को चीन के साथ पुनर्संतुलित करना होगा। और फिर हम प्रणालीगत प्रतिद्वंद्वी भी हैं, क्योंकि हम संस्थानों को जिस तरह से देखते हैं, राजनीतिक आवश्यकताओं को देखते हैं, मानवाधिकारों को देखते हैं, नागरिक समाज की भूमिका को देखते हैं, तो जब आप ब्रसेल्स के दृष्टिकोण से बात करते हैं, या जब आप बीजिंग के दृष्टिकोण से बात करते हैं तो बहुत अलग नज़र आता है। और इसलिए इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में, एशिया में हमारा भागीदार चीन नहीं बल्कि भारत है। क्योंकि राजनीतिक संस्थाओं को लेकर हमारा दृष्टिकोण भारतीय दृष्टिकोण से मेल खाता है, और यह एक उदार लोकतांत्रिक परंपरा है। और इसलिए हमारी कुछ सीमाएं हैं। मैं चीन के साथ हमारे संबंधों की तीन सीमाएं मानता हूँ। पहला, जब मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है, उदाहरण के लिए, शिनजियांग प्रांत में, तो हम चुप नहीं रह सकते हैं, और हमें इसकी निंदा करनी चाहिए और हम इसकी निंदा भी करते हैं। दूसरा, हम हांगकांग में लोकतान्त्रिक व्यवस्था में दवाब को स्वीकार नहीं कर सकते। और तीसरा, हम दक्षिण चीन सागर में और ताइवान के संबंध में मौजूदा यथास्थिति में किसी भी तरह का बदलाव स्वीकार नहीं कर सकते। इसलिए हमें इस संदर्भ में बहुत सतर्क, बहुत अधिक विवेकपूर्ण, और साथ ही, बहुत दृढ़ भी रहना होगा।

समीर सरन: धन्यवाद सैंटोस सिल्वा जी। मैं थोड़ी देर में आपसे राजनीति के मुद्दे पर फिर कुछ सवाल करुँगा। मेरे पास अभी कुछ हैं जो मैं डॉ. जयशंकर जी से पूछना चाहूँगा। डॉ. जयशंकर, आने वाले समय में कई पहलों की शुरुआत के साथ कनेक्टिविटी नया क्षेत्र है। भारत-यूरोपीय संघ कनेक्टिविटी समझौते का मुख्य आधार क्या हैं? महामारी की वजह से हम डिजिटल के महत्व से भी अवगत हुए हैं। क्या हम इस नई व्यवस्था के ज़रिए यानि भारत और यूरोपीय संघ के ज़रिए, डिजिटल कनेक्टिविटी और डिजिटल अवसंरचना को बढ़ावा देने की योजना बना रहे हैं? और अगर हम अधिक सकारात्मक और आशावादी होकर बात करें, तो क्या आपका मानना है कि भारत और यूरोपीय संघ मिलकर एक ऐसी विशिष्ट डेटा अर्थव्यवस्था पेश करने वाले हैं जो अमेरिका से अलग हो, चीनी से अलग हो, एशियाई लोगों के लिए आकर्षक हो, अफ्रीका के लिए आकर्षक हो। जब डेटा प्रस्ताव नेटवर्क बनाने की बात आती है तो क्या हम दोनों इस संदर्भ में महत्वाकांक्षी हो सकते हैं?

डॉ. एस. जयशंकर, विदेश मंत्री: समीर, जब कनेक्टिविटी की बात आती है, और हमने अभी-अभी अपनी कनेक्टिविटी साझेदारी शुरू की है, तो हमारा मतलब फिजिकल कनेक्टिविटी से होता है, जिसे आमतौर पर लोग कनेक्टिविटी मानते हैं। डिजिटल कनेक्टिविटी, जिसे आपने ऊर्जा कनेक्टिविटी और मानव कनेक्टिविटी कहते हैं। फिजिकल कनेक्टिविटी के संदर्भ में, यूरोपीय संघ के विचार काफी हद तक भारत के विचारों से मेल खाते हैं, और जब कनेक्टिविटी पर वैश्विक बहस की बात आती है, तो भारत ने इसपर तीन, चार साल पर अपने विचार रखे थे, और हमारा मानना है कि अगर कनेक्टिविटी को वैश्विक बनाना है, तो यह पारदर्शी होनी चाहिए, यह व्यावसायिक रूप से व्यवहार्य होनी चाहिए, यह पर्यावरण के अनुकूल होनी चाहिए, यह सामुदायिक रुप से उत्तरदायी होनी चाहिए, और इससे कर्ज का बोझ नहीं बढ़ना चाहिए। इसलिए यह एक व्यापक सिद्धांत हैं और मुझे लगता है कि यूरोपीय संघ इन सभी पर काफी हद तक सहमत है। जब मानव कनेक्टिविटी की बात आती है, तो इसपर हम इतना अधिक ध्यान देते हैं, लेकिन, यह आज की इस धारणा पर आधारित है, कि ज्ञान अर्थव्यवस्था हेतु प्रतिभा का प्रवाह आवश्यक है। और हम इसे जितना अधिक सहज बनाएंगे, उतना ही हमें व्यापार को आसान बनाने में मदद मिलेगी, हम अपने-अपने समाजों में रचनात्मकता का विकास कर सकेंगे। इसलिए विभिन्न देशों के साथ हमारी प्रवास और गतिशीलता भागीदारी है, हमने फ्रांस जैसे यूरोपीय संघ के कुछ देशों के साथ कुछ समझौते किए हैं, हमने कुछ सप्ताह पहले पूर्व यूरोपीय संघ के एक देश के साथ ऐसा ही समझौता किया है। और ऐसी साझेदारी कुछ अन्य देशों के साथ भी करने का प्रयास कर रहे हैं और पुर्तगाल उनमें से एक है। आपने जिस डिजिटल कनेक्टिविटी की बात की, उसपर भी हम विचार कर रहे हैं। हम एक डिजिटल निवेश मंच की तलाश कर रहे हैं। हम एआई पर कार्यबल से सृजन की तलाश कर रहे हैं। लेकिन, अगर मैं व्यापक दृष्टिकोण की बात करुँ, क्योंकि आपने पूछा कि इसके अभिसरण क्या है, जिसे यूरोपीय संघ और भारत डिजिटल दुनिया के संदर्भ में देखते हैं। मुझे लगता है कि यहां काफी मजबूत अभिसरण है। यहां डेटा सुरक्षा, साइबर सुरक्षा और डेटा गोपनीयता से संबंधित अभिसरण है। अभी हम यूरोपीय संघ और दुनिया की बड़ी तकनीकी कंपनियों के बीच बहुत रुचिपूर्ण जुड़व देख रहे हैं, क्योंकि ये ऐसी बहस हैं जो हमारे देश में भी शुरू हो चुकी हैं। और जब व्यावहारिक रुप से इन्हें लागू करने की बात आती है, तो यह 5जी हो सकता है, यह 5जी के बाद की तकनीक हो सकती है, क्योंकि यह उन क्षेत्रों में से एक है जिस पर हमने 5जी से परे चर्चा करना शुरू कर दिया है। और इसपर एक साथ आना, स्वाभाविक है। इसलिए मैं कनेक्टिविटी में इन सभी को शामिल मानता हूं। लेकिन डिजिटल कनेक्टिविटी, विशेष रूप से, एक काफी अच्छा क्षेत्र है, जिसपर सहयोग के अवसर तलाशे जाने हैं, और मुझे पूरा विश्वास है कि आप आने वाले दिनों में ऐसा होते हुए देखेंगे।

समीर सरन: मंत्री महोदय, आपने हमारे नए रिश्ते हरित, हरित बनावट या हमारे रिश्ते की नई दिशा पर भी बात की। जब जलवायु परिवर्तन, हरित निवेश, बुनियादी ढांचे की बात आती है तो आप यूरोपीय संघ के साथ जुड़ाव को बढ़ाने की परिकल्पना किस तरह से करते हैं। अभी कौन सी मूर्त परियोजनाएं या प्रस्ताव विचाराधीन हैं?

डॉ. एस. जयशंकर, विदेश मंत्री: यह एक श्रृंखला है। जाहिर है, यह जलवायु कार्रवाई के प्रति आपकी प्रतिबद्धता के दृष्टिकोण के साथ उच्चतम स्तर पर है। और मैं यहां बताना चाहूंगा कि हम उन कुछ जी20 देशों में से एक हैं जिन्होंने अब तक पेरिस समझौते के लक्ष्यों को तय किया है। अब, इसमें महत्वपूर्ण बातचीत होनी है, विशेष रूप से सीओपी26 तक। क्योंकि कुछ देशों को छोड़कर, आज दुनिया के अधिकांश देश जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न खतरों को स्वीकार करते हैं। मुझे लगता है कि यह बहस कई मायनों में काफी पीछे है। भारत में, इस सरकार ने विशेष रूप से जलवायु कार्रवाई को पूरे जोश और उत्साह के साथ अपनाया है, और इस मायने में किसी से पीछे नहीं है। अब, इसमें समस्या यह है कि हमारे पास महत्वाकांक्षा या प्रतिबद्धता की कमी नहीं है, लेकिन सवाल यह है कि इन महत्वाकांक्षाओं को साकार करने हेतु संसाधन और क्षमताएं कहां से विकसित की जाएं। और अगर आप इस पूरे डोमेन को देखें, तो इसमें सबसे बड़ी समस्या अधिक प्रतिबद्धता और संसाधनों के कम वितरण की है। इसलिए नेट जीरो पर आज बहस चल रही है, कि ग्रह को नेट जीरो बनाने हेतु सभी को नेट जीरो होना चाहिए, लेकिन जाहिर है, हर कोई एक साथ नेट जीरो नहीं बन सकता है, लेकिन ऐसा होना का विज़न, लक्ष्य, योजना है, और ऐसा करने की इच्छा भी है। लेकिन जब तक ये समानांतर में न हों, तब तक समान रूप से यथार्थवादी और व्यावहारिक बहस होती रहेगी कि उन्हें हासिल करने के लिए संसाधन कहां से उपलब्ध हों। मुझे कभी-कभी दुनिया के अन्य हिस्सों से कुछ सुझाव सुनने को मिलते हैं। अब, उन्हें यूरोप में लागू किया जा सकता है। लेकिन, आप ऐसी नीति नहीं अपना सकते जो यूरोपीय स्तर के विकास को प्रतिबिंबित करे, और यह भारत जैसे समाज में यांत्रिक रूप से लागू हो सके। इसलिए इसमें कुछ समस्याएं हैं, इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि यह एक तरह की वैचारिक बातचीत न हो। जलवायु परिवर्तन, अस्तित्वगत है, इसमें किसी को संदेह नहीं है। लेकिन चूंकि यह अस्तित्वगत है, इसलिए यह केवल आस्था का विषय नहीं हो सकता, इसके लिए कार्यक्रम और संसाधन बनाने होंगे तथा कार्रवाई भी करनी होगी।

समीर सरन: मंत्री महोदय, इससे पहले कि मैं विदेश मंत्री सिल्वा की ओर रुख करूं, उन्होंने तीन बातों का उल्लेख किया, मैं उन्हें दोहराना चाहूंगा। उन्होंने कहा, सुरक्षा चुनौती, प्रणालीगत प्रतिद्वंद्वी, और खतरा न होने की बात कहीं। मोटे तौर पर आप चीन का कैसे आकलन करेंगे? ये चीन के उदय को लेकर पुर्तगाल की ओर से किए गए आकलन थे। इन तीन विवरणों के आलोक में आप वैश्विक व्यवस्था पर चीन के उदय का आकलन किस तरह से करेंगे?

डॉ. एस. जयशंकर, विदेश मंत्री: हम अलग-अलग जगहों से आते हैं, हमारे हालात अलग-अलग हैं। मैं एक ऐसे देश से हूं जिसकी सीमा चीन से लगती है। हमारी सेना, चीनी सेना के खिलाफ सीमा से कुछ ही दूरी पर तैनात है। इसलिए मेरी स्थिति यूरोप से बहुत अलग है। और मैं इसका आकलन अपने हितों को ध्यान में रखकर करुंगा। और मैंने पहले कई मंचों पर इसे स्पष्ट किया है।

समीर सरन: बिल्कुल सही कहा आपने। आज मैं फिर से आपसे इस सवाल का जबाव नहीं पूछना चाहूंगा। इसलिए आगे बढ़ते हैं। प्रोफेसर सिल्वा, दर्शकों से आपके लिए दो सवाल हैं। पहला, सवाल बेल्ट एंड रोड पहल और यूरोप में इसकी उपस्थिति पर है। और यूरोपीय संघ और पुर्तगाल दोनों के रूप में आप इसपर कैसे प्रतिक्रिया देंगे? और दूसरा सवाल अभिषेक कुमार ने पूछा है जो 17 प्लस वन व्यवस्था पर है। लिथुआनिया से विरोध पर आपका क्या कहना है। और इसके अलावा, मेरा सवाल यह है कि, क्या चीन के पास अभी यूरोपीय संघ में स्थायी सीट है? क्या 17 प्लस वन, कम से कम, यूरोपीय बहसों में एक स्थायी चीनी स्थिति है? और आप इसे कैसे देखते हैं?

प्रोफेसर ऑगस्टो सैंटोस सिल्वा: सबसे पहले दूसरे सवाल का जवाब देना चाहूंगा। पुर्तगाल भाग नहीं ले रहा है, वह 17 प्लस वन समूह प्रारूप का सदस्य नहीं है, आप जानते हैं कि 17 का अर्थ मध्य एवं पूर्वी यूरोप के 17 देश से हैं। उनमें से कई यूरोपीय संघ के सदस्य हैं, और चीन के होने के नाते, यह एक अनौपचारिक सभा है, हम इसका हिस्सा नहीं हैं। हमारी स्थिति हमेशा ऐसी ही रहता है, हम यूरोपीय ढांचे से बाहर किसी गैर-यूरोपीय देशों के साथ किसी अन्य गठबंधन में भाग नहीं लेते हैं। इसलिए हम यूरोपीय संघ और चीन के बीच संवाद या यूरोपीय संघ और भारत के बीच संवाद का हिस्सा हैं, लेकिन हम किसी भी तरह के आंतरिक छोटे समूह में भाग नहीं लेते हैं जो यूरोप के इन भागीदारों के साथ घनिष्ठ या विशिष्ट संबंध स्थापित करता हो। हम समझते हैं कि इस प्रारूप का उद्देश्य क्या है, लेकिन हम इसमें भाग नहीं लेते हैं। अब बीआरआई, बेल्ट एंड द रोड पहल के सवाल पर आता हूं। यह कुछ मायनों में सार्थक है। यह चीन की पहल है जिससे अफ्रीका, एशिया और यूरोप के कई देशों ने निवेश के मामले में, अवसंरचना में निवेश करने हेतु संसाधन के मामले में लाभ उठाया है। ये देश जो कीमत चुका रहे हैं वह तेजी से बढ़ रही है और यह एक बड़ी समस्या है। एशिया के साथ जुड़वा की हमारी अलग रणनीति है, जिसे यूरो-एशिया कनेक्टिविटी कहा जाता है। और उदाहरण के लिए, पुर्तगाल ने 2018 में चीन के साथ एक समझौते ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए, जिसका उद्देश्य हमारी खुद की यूरोपीय रणनीति और बेल्ट एंड रोड पहल के बीच सहयोग स्थापित करना था। अब, चीजें आगे बढ़ रही हैं और हम एक विकल्प के रुप में जी7 स्तर पर तैयारी कर रहे हैं, मैं इसे विकल्प नहीं बल्कि एक नया साधन मानता हूं जो विकासशील देशों को भौतिक और डिजिटल अवसंरचना में निवेश करने की उनकी जरूरतों का समर्थन कर सके। इसलिए, बेल्ट एंड रोड पहल के अपने मायने है जिससे अपने स्वयं के परिणाम मिलते हैं, हमें निर्भरता के स्तर को लेकर बहुत सावधान रहना होगा, जो अन्य देशों पर हो सकती है, लेकिन हमें मालूम है कि विकासशील देशों के लिए बेल्ट एंड रोड रोड पहल आपकी एकमात्र पहल नहीं हो सकती है। इसलिए यूरोपीय संघ और उत्तरी देश के रूप में यह हमारी जिम्मेदारी है कि विकासशील देशों को अपनी स्वयं की अवसंरचना को विकसित करने हेतु अन्य साधन, संसाधन और जानकारी प्रदान करें। बहुध्रुवीय दुनिया द्विध्रुवीय नहीं है। मंत्री जयशंकर ने अपने शुरुआती हस्तक्षेप में इसे स्पष्ट किया था। हम एक बहुध्रुवीय दुनिया में रहते हैं और हम कई वैश्विक खिलाड़ियों के साथ बहुध्रुवीय दुनिया में रहना पसंद करते हैं। हमें नहीं लगता कि दो विरोधी माहौल, चीनी प्रभाव और अमेरिकी प्रभाव के बीच दुनिया का विभाजन करना उपयुक्त है या इसे स्वीकार किया जा सकता है। हमें कई प्रमुख वैश्विक खिलाड़ियों की जरूरत है। और हमें यह समझना होगा कि इसके लिए हमें कई पहल करने की भी जरूरत है, जिसका उपयोग हम अपनी क्षमताओं में सुधार हेतु कर सकते हैं। और यूरोपीय संघ और भारत के बीच कनेक्टिविटी साझेदारी इसका एक अच्छा उदाहरण है क्योंकि इस साझेदारी में दोनों पक्षों की प्रतिबद्धताओं में से एक तीसरे देशों, यानि अफ्रीकी देशों के साथ मिलकर काम करना है। इसलिए इस मायने में कहा जा सकता है कि, एकाधिकार कोई अच्छी बात नहीं है। हमें एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करने वाली कई पहलों की जरुरत है।

समीर सरन: मंत्री महोदय, मैं आपसे कनेक्टिविटी के मुद्दे पर कुछ सवाल पूछना चाहूंगा। भारत के परिपेक्ष्य में आप यूरोपीय संघ में विशेष रूप से चीन की तकनीक जैसे विशिष्ट क्षेत्र में अलगाव देख रहे हैं, जबकि पूरे महाद्वीप में इसकी पहुंच है। कुछ ऐसे देश हैं जिन्होंने इसे खारिज करते हुए कड़ा रुख अपनाया है। कुछ ऐसे देश हैं जो अभी भी डिजिटल व्यवसायों में चीन की मौजूदगी को प्रोत्साहित कर रहे हैं। और दुर्भाग्य से, प्रौद्योगिकी कोई सीमा नहीं है। एक कमजोर कड़ी पूरे सिस्टम को कमजोर कर देती है। तो इस संदर्भ में आप यूरोपीय संघ और पुर्तगाल की स्थिति को किस तरह से देखते हैं, यहां मुझे लगता है कि पुर्तगाल इस बहस का मुख्य केंद्र है। आप चीन की तकनीक और चीनी प्रौद्योगिकियों के विस्तार के संबंध में पुर्तगाल की स्थिति को किस तरह से देखते हैं, जिसमें डॉ. जयशंकर ने 5जी और कुछ अन्य प्रमुख साझेदारियों का भी जिक्र किया है। आप तकनीकी के भविष्य को किस तरह से देखते हैं जहां हम सभी जोखिमों के प्रबंधन पर एक समान स्थिति में आ सकते हैं? आपने प्रणालीगत प्रतिद्वंद्वी, सुरक्षा चुनौती का उल्लेख किया था। मेरे हिसाब से यह डिजिटल क्षेत्र में बहुत अधिक महत्वपूर्ण भूमिका में है।

प्रोफेसर ऑगस्टो सैंटोस सिल्वा: मुझे लगता है कि आम सहमति बन सकती है। और इसके लिए हमें यथार्थवादी और तर्कसंगत होना होगा। और अगर हम पुर्तगाल का उदाहरण लें, तो चीन के साथ हमारे अच्छे संबंध हैं। इतिहास को देखते हुए हम या चीन नहीं भूल सकता कि 16वीं शताब्दी में पुर्तगाली नागरिक ही था, जो समुद्र के रास्ते चीन तक पहुंचा, मेरा मतलब है, 16वीं शताब्दी में समुद्र के माध्यम से चीन आने वाला पहला यूरोपीय एक पुर्तगाली नाविक था। और चीन के साथ हमारे अच्छे संबंध हैं। आप जानते हैं कि एन्क्लेव, मकाऊ चीनी क्षेत्र था जो 20वीं शताब्दी के अंत तक पुर्तगाली प्रशासन के अधीन था। इसलिए, उनके साथ हमारे अच्छे संबंध हैं, और कुछ पुर्तगाली कंपनियों और बैंकिंग प्रणाली तथा बीमा कंपनियों और हमारी विद्युत उपयोगिता में भी चीन का निवेश है, हमारी मुख्य विद्युत उपयोगिता का 20 प्रतिशत हिस्सा चीनी पूंजी से आ रहा है। और जब हम अपना जी5 टेंडर लॉन्च करेंगे, यह और बढ़ेगा। और हम यह स्पष्ट कर चुके हैं कि हम उनकी कंपनियों की राष्ट्रीयता को देखकर प्रौद्योगिकियों में अंतर नहीं करेंगे। इसलिए, जी5 नेटवर्क के क्षेत्र में, कंपनियां अपनी राष्ट्रीयता से मुक्त होकर और अपने पसंदीदा आपूर्तिकर्ताओं की राष्ट्रीयता से स्वतंत्र रूप से बोलियां पेश कर सकती हैं। लेकिन 5जी नेटवर्क के कोर सिस्टम में, सुरक्षा एक समस्या है, और सुरक्षा से जुड़ी इस समस्या की वजह से बिट्स की जांच की जाएगी और हमारे सुरक्षा तंत्र द्वारा इसका आकलन भी किया जाएगा, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि 5जी या अन्य डिजिटल बदलावों, उदाहरण के लिए, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल पुर्तगाल की सुरक्षा को कमजोर करने, यूरोपीय सुरक्षा को कमजोर करने, या ऐसी स्थिति के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सके जिससे पुर्तगाल और यूरोप की अर्थव्यवस्था से जुड़े लोगों का राजनीतिक नियंत्रण हो सके, और हमारे यहां ये गारंटी प्रदान करने हेतु यूरोप में एक टूलबॉक्स है और हम इसका अनुसरण कर रहे हैं। यूरोप के मामले में, एक अन्य मुद्दा भी है जिसको लेकर पुर्तगाल बहुत सतर्क है, क्योंकि अभी हम स्वायत्त यूरोप के सृजन और यूरोप के पुनर्औद्योगीकरण की बात कर रहे हैं और इसमें डिजिटल प्रौद्योगिकियां महत्वपूर्ण डोमेन हैं। हमारे यहां 5जी के क्षेत्र में यूरोपीय संघ के देशों से संबंधित दो प्रमुख कंपनियां हैं, और हम में से कुछ इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में यूरोप को अधिक मजबूत बनाने हेतु इन कंपनियों का समर्थन कर रहे हैं। मेरा जवाब बहुत लंबा हो गया, इसके लिए माफी चाहूंगा, लेकिन हमें यथार्थवादी और तर्कसंगत बनने के साथ-साथ अपनी सुरक्षा जरूरतों और सुरक्षा आकलन पर भी ध्यान देना होगा।

समीर सरन: मंत्री जी आपका धन्यवाद। आपकी प्रतिक्रिया से मैं आश्वस्त हो गया हूं कि पुर्तगाल के नेटवर्क से जुड़ने से मेरे डेटा असुरक्षित नहीं होगा। आपके जवाब से इस मोर्चे पर आश्वासन मिला। श्री डॉ. जयशंकर जी, अब मैं आपसे यही सवाल पूछना चाहूंगा। आपने हाल ही में इंडो पैसिफिक क्षेत्र पर यूरोपीय संघ परिषद के प्रस्ताव को देखा है, आप यूरोपीय संघ में अपने समकक्षों के साथ भी बातचीत कर रहे हैं। और आपने अलग-अलग देशों को आगे बढ़ते हुए और इस विशेष समुद्री क्षेत्र में अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हुए देखा है। आपने जी7 को भी देखा है। और आप इसकी एक बैठक में भी शामिल रहे हैं। आप इंडो पैसिफिक में यूरोपीय संघ की भूमिका का आकलन कैसे करते हैं? क्या आप मानते हैं कि एशिया पैसिफिक 20वीं सदी है और 21वीं सदी इंडो पैसिफिक है? क्या यह बदलाव हुआ है? क्योंकि इसके राजनीतिक आयाम भी हैं, जो कि बदल गए हैं, इसके अलग-अलग मतलब हैं। और आप यूरोपीय संघ को आपके देश द्वारा निवेश की गई बिम्सटेक, आईओआरए और हमारे क्षेत्र के कुछ अन्य समूहों में निवेशित अपनी कुछ पहलों में एक प्रमुख भागीदार के रूप में किस तरह देखते हैं। आप अपने आकलन में यूरोपीय संघ को राजनीतिक रूप से प्रमुख भूमिका निभाते हुए किस तरह से देखते हैं?

डॉ. एस. जयशंकर, विदेश मंत्री: देखिए, आपका कहना बिल्कुल सही है। मुझे लगता है कि एशिया पैसिफिक अब एक कालानुक्रमिक शब्द बन गया है, जो द्वितीय विश्व युद्ध से उत्पन्न हुआ था, मेरे हिसाब से इंडो-पैसिफिक वैश्वीकृत दुनिया को बेहद सटीकता से दर्शाता है, ऐसी दुनिया जहां इंडियन और पैसिफिक महासागर और दोनों तरफ के खिलाड़ियों के बीच बहुत अधिक सहजता है। इंडो पैसिफिक में यूरोपीय संघ की रुचि क्या रही है, यानि एक सामूहिक और सदस्य राज्यों, जर्मनी या फ्रांस या नीदरलैंड जैसे राज्यों के रूप में। हमने इसमें बढ़ती रुचि और उस बढ़ती रुचि की वजह, जिसका जिक्र ऑगस्टो जी ने खुद किया है, यूरोप में यह अहसास है कि आप आर्थिक वैश्वीकरण नहीं कर सकते हैं और इसके रणनीतिक परिणामों को नज़रअंदाज भी नहीं कर सकते हैं। इसलिए अगर आज यूरोप आर्थिक रूप से वैश्विक है, तो रणनीतिक रूप से यूरोप को पूरी तरह से बंद करके उसके हितों की पूर्ति नहीं हो सकती। कई सालों से यूरोप की इसके लिए आलोचक होती रही है, और मुझे लगता है कि यूरोप इससे बाहर निकल रहा है और इसकी वजह यह जागरूकता है कि यूरोप दुनिया तक पहुंचे या नहीं, दुनिया यूरोप तक जरुर पहुंचने वाली है। इसलिए हम यूरोप में अधिक जागरूकता और जुड़ाव देख रहे हैं। और यह व्यावहारिक है, हमने यूरोपीय संघ के नौसेना बल, अटलांटा के साथ अदान की खाड़ी में पहला नौसैनिक अभ्यास किया है, आज यूरोपीय नौसेना अधिकारी हमारे संलयन केंद्र यानि हिंद महासागर संलयन में माजूद हैं जो कि दिल्ली के बाहर स्थित है। हमने खुद प्रिमारियो नामक पहल का समर्थन किया है, जिसका हिंद महासागर में महत्वपूर्ण समुद्री मार्ग हैं। इसलिए अलग-अलग देशों और सामूहिक रूप से साथ काम करने का इतिहास पहले से ही मौजूद है। तो मैं कहना चाहूं कि अगर हम अन्योन्याश्रयता और अंतर्प्रवेश को पूरी तरह से समझें, जो इस दुनिया की एक विशेषता है, तो कनेक्टिविटी, डेटा, प्रौद्योगिकी, और जलवायु चुनौती, हमारा नया एजेंडा, जिसके बारे में मैंने बात की, इसमें हमें और अधिक घनिष्टा के साथ मिलकर काम करने की जरुरत है। और अब मैं आपके पिछले सवाल का जबाव देता हूं, भारत यानि हम एक बाजार अर्थव्यवस्था हैं, हम एक राजनीतिक लोकतंत्र हैं, हम एक बहुलवादी समाज हैं। इसलिए स्वाभाविक रूप से, इसलिए समान विचारधारा वाले अन्य देशों के साथ हमारी समझ अधिक स्पष्ट है। इसलिए, जैसा कि पुर्तगाल के मंत्री जी ने कहा कि इस साल हमने जो प्रगति की है, वह कहीं अधिक राजनीतिक है। यह राजनीतिक और रणनीतिक है। यह वह बदलाव है जिसे मैं चाहता हूं कि आप और आपके श्रोता अच्छी तरह से समझें।

समीर सरन: मंत्री महोदय, मेरा यह सवाल आप दोनों से है। हम दिल्ली तथा भारत के अन्य हिस्सों में कोविड की दूसरी लहर के दौरान यूरोपीय संघ और इसके सदस्य देशों के समर्थन हेतु उनके आभारी हैं, इसलिए हम आपको धन्यवाद देते हैं। इस दौरान, हमने ट्रिप्स छूट पर मतभेद भी देखें। इस दौरान भारत और दक्षिण अफ्रीका ने प्रस्ताव दिया, जिसे विशेष रूप से यूरोपीय संघ द्वारा स्वीकार नहीं किया गया। तो मेरा सवाल आप दोनों से है, जिसमें एक सवाल मौलिक है, दूसरा विशिष्ट है। श्री सिल्वा से मेरा विशिष्ट सवाल है कि, वैक्सीन का समान वितरण ढांचा तैयार करने हेतु पुर्तगाल और यूरोप ने क्या किया? हम ऐसे में जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर साथ लड़ने की बात कैसे कर सकते हैं, जब हम सभी को वैक्सीन उपलब्ध कराने हेतु साथ मिलकर काम नहीं कर सकते। तो, वैश्विक सार्वजनिक वस्तुओं को वितरित करने, सभी को वैक्सीन उपलब्ध कराने और साथ मिलकर काम करने हेतु किस तरह की योजना बनाई गई है। यह एक विशिष्ट सवाल है। डॉ. जयशंकर जी से दूसरा सवाल यह है कि, यूरोपीय संघ और भारत के बीच मूल अंतर क्या है? क्या वैश्वीकरण के हमारे व्यक्तिगत आकलन में भी यही अंतर है? क्या यह ऐसा क्षेत्र है जहां हम मौलिक रूप से भिन्न हैं, जहां हम मानते हैं कि बौद्धिक संपदा को आईपीआर के तहत साझा किया जा सकता है, जिसके कुछ पश्चिमी देश आदी हैं। वैक्सीन वितरण में समानता पर प्रोफेसर सिल्वा जी से मेरा एक विशिष्ट सवाल यह है कि, क्या हम कोई ऐसा ग्लोबल मॉडल बना सकते हैं ताकि हम भविष्य की अन्य चुनौतियों से लड़ने में सक्षम हो सके?

प्रोफेसर ऑगस्टो सैंटोस सिल्वा: आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। और सबसे पहले, मैं यह कहना चाहूंगा कि इसपर अभी यूरोपीय संघ के भीतर बहस चल रही है। दार्शनिक रूप से हम बौद्धिक संपदा अधिकारों के पक्षधर हैं। और हमारा मानना है कि उन्हें संरक्षित करना बहुत जरुरी है। क्योंकि अब तक, यह स्पष्ट हो चुका है कि महामारी के नए वेरिएंट, नए न्यूटेशन, नए स्ट्रेन सामने आ रहे हैं, इसके लिए हमें अगली महामारी से निपटने के लिए तैयार रहना होगा। और दार्शनिक रूप से, हमें विज्ञान और नवोन्मेष तथा वैक्सीन के उत्पादन से संबंधित उद्योग के इकोसिस्टम की क्षमता को बनाए रखने की जरूरत है, और बौद्धिक संपदा अधिकार इसके लिए अहम हैं। इसलिए हमारा मानना है कि बौद्धिक अधिकारों के अस्थायी निलंबन को समाप्त करना अंतिम हल है। लेकिन हम यूरोपीय संघ में इस पर चर्चा कर रहे हैं, क्योंकि हमेशा की तरह इसमें देशों के अलग-अलग विचार हैं, और हम आम सहमति बनाने का प्रयास कर रहे हैं। दूसरा, हमें अन्य क्षेत्रों में और काम करने की आवश्यकता है। हमारे अनुसार, मौजूदा व्यवधान उत्पादन को लेकर है। इसलिए हमने अफ्रीका में स्थित उत्पादन सुविधाओं में 1 मिलियन यूरो के निवेश का निर्णय लिया है। और शायद हम लैटिन अमेरिका के संबंध में भी ऐसा ही कदम उठाएंगे, हमें अपनी उत्पादन क्षमता में सुधार करने की आवश्यकता है, क्योंकि इस क्षमता से सार्वभौमिक टीकाकरण प्रदान नहीं किया जा सकता है। और तीसरा, अधिक राजनीतिक तरीके से, विडंबना यह है कि हम अभी भी अमेरिकी प्रस्ताव की प्रतीक्षा कर रहे हैं, क्योंकि शायद दो महीने पहले, संयुक्त राज्य अमेरिका के व्यापार सचिव ने बहुत स्पष्ट कहा था कि, संयुक्त राज्य अमेरिका पेटेंट की अस्थायी छूट के पक्ष में है। लेकिन अभी तक भी, जहां तक मुझे पता है, कोई ठोस प्रस्ताव पेश नहीं किया गया है, जैसा कि हमें भारत और दक्षिण अफ्रीका से प्रस्ताव मिलें और जिसपर हम डब्ल्यूटीओ के भीतर चर्चा कर सके। लेकिन यह बहुत दिलचस्प होगा कि अमेरिकी प्रस्ताव कहीं अधिक ठोस हो सकता है। धन्यवाद।

समीर सरन: आपका धन्यवाद। अब मैं इस पर डॉ. जयशंकर जी से उनकी प्रतिक्रिया जानना चाहूंगा।

डॉ. एस. जयशंकर, विदेश मंत्री: जब हमने और दक्षिण अफ्रीका ने यह प्रस्ताव दिया था, जाहिर है, हम यहां बड़े वैश्विक दक्षिण की बात कर रहे थे। लेकिन हम मानते हैं कि अन्य देश भी ऐसी ही रुचि रखते हैं, इसलिए मेरा मानना है कि वैश्विक दक्षिण भी इस मामले में प्रबुद्ध उत्तरी देशों से जुड़ेगा, और हम इसके संकेत भी देख रहे हैं। जब मैं लंदन में जी7 प्लस फोर विदेश मंत्रियों की बैठक में गया था, तो उस वक्त अमेरिका ने कुछ प्रस्ताव दिया था। और जैसा कि प्रोफेसर सैंटोस सिल्वा ने कहा, यूरोपीय संघ में अभी बातचीत चल रही है, यूरोपीय संघ में हर किसी की स्थिति समान नहीं है, कुछ राजी हैं, कुछ राजी नहीं हैं, लेकिन मैं यहां दो बातें कहना चाहूंगा। पहली, उत्पादन स्तर को बहुत अधिक बढ़ाए बिना, हम इस समस्या से नहीं निपट सकते, मौजूदा उत्पादन स्तर से तो बिल्कुल भी नहीं। इसलिए हमें उत्पादन स्तर को बढ़ाने के लिए क्या करना चाहिए, इसपर विचार करना होगा। और दूसरी बात, यह है कि यूरोप इस समस्या को हल करने हेतु महत्वपूर्ण है, न केवल आईपीआर के कारण, बल्कि इसलिए भी कि बहुत सारी आपूर्ति श्रृंखलाएं यूरोप से होकर जाती हैं। और हम इसके लिए अभी ब्रसेल्स और कुछ अन्य देशों के साथ बातचीत भी रहे हैं। इसलिए मुझे लगता है कि यहीं अंतिम उपाय है, क्योंकि यह एक ऐसी आपदा है जिसके बारे में हम में से कोई भी सोच भी नहीं सकता है। इसलिए मुझे लगता है कि इसके लिए अंतिम उपाय को अपनाने की जरुरत है। और हमने जो प्रस्ताव रखा है, वह इसी से मिलता-जुलता है।

समीर सरन: और अब विशिष्ट सवाल, हम वैश्वीकरण को कैसे देखते हैं, क्या यह अंतर है? क्या वैश्वीकरण को देखने के तरीके में हमारे बीच कोई बुनियादी अंतर है?

डॉ. एस. जयशंकर, विदेश मंत्री: जैसा कि मैंने कहा, यूरोप में भी ऐसे कई देश हैं जिनके विचार इतने अलग नहीं हैं। इसलिए मुझे लगता है कि आप इसे यूरोप और भारत के बीच बहुत बड़ा अंतर बनाने की कोशिश कर रहे हैं। और पिछले छह महीनों में हमने जो किया है, वह दिखाता है कि दुनिया में बहुत बड़ा अंतर या भिन्नता नहीं है, हमारे बीच बहुत सारी समानताएं हैं, और मुझे पूरा यकीन है कि हम इस मुद्दे पर भी एकमत होंगे।

समीर सरन: ठीक है। अब मैं अपना आखिरी सवाल पूछता हूं, जो मैं आप दोनों से ही पूछना चाहूंगा, और जिसका जवाब पहले प्रोफेसर सिल्वा दे सकते हैं और इसके बात मैं भारत के विदेश मंत्री की ओर रुख करूंगा। सवाल यह है कि 20वीं सदी की कई व्यवस्थाओं ने हमें वैश्विक दुनिया के रूप में संचालन की अनुमति दी है, जो हाल ही में यूरोपीय संघ और वाशिंगटन में डीसी और लंदन, डीसी और बर्लिन, डीसी और पेरिस के बीच बातचीत से संभव हो सका है। ट्रान्साटलांटिक साझेदारी से उनके मानदंड, संहिता, कानून, ढांचे का प्रस्ताव सामने आया, जिसके कि हम सभी, सदस्यता हैं या आंशिक सदस्य हैं। क्या आपको लगता है कि इस सदी में भारत और यूरोपीय संघ डिजिटल दुनिया के लिए मानदंडों और संहिताओं का प्रस्ताव कर सकते हैं, जलवायु प्रतिक्रिया हेतु वित्तीय प्रवाह की रूपरेखा तैयार कर सकते हैं, वैक्सीन तथा महामारी की प्रारंभिक चेतावनी हेतु वैश्विक स्वास्थ्य निगरानी प्रणाली बना सकते हैं? क्या आपको लगता है कि हम उस मुकाम पर पहुंच रहे हैं जहां हम दोनों एक-दूसरे पर इस तरह का भरोसा करते हैं, इतने अधिक महत्वाकांक्षी हैं कि किसी और के प्रयासों को बल देने के बजाय अपने वैश्विक भविष्य को आकार दे सकें? इसलिए प्रोफेसर सिल्वा, भारत और यूरोपीय संघ 21वीं सदी के भविष्य को आकार देने वाले साझेदार के रूप में कितने महत्वाकांक्षी हैं। जब आपकी अध्यक्षता समाप्त हो जायेगी और स्लोवेनिया को सौंप दी जाएगी, तब आप इसको लेकर कितने महत्वाकांक्षी हैं?

प्रोफेसर ऑगस्टो सैंटोस सिल्वा: आपका धन्यवाद। और मैं यहां बिल्कुल स्पष्ट बात कहूंगा, और मैं ऐसी ही बात पसंद भी करता हूं। हमारे बीच एक ही अंतर है जिसे हम दूर नहीं कर सकते। आपके देश को क्रिकेट से प्यार है। हमें क्रिकेट क्या है, इसकी समझ नहीं है। लेकिन, बाकी के मुद्दे ऐसे हैं, जिन्हें हल किया जा सकता है। लेकिन आप हमें क्रिकेट की खूबसूरती नहीं समझा सकते हैं और हम आपको फुटबॉल की खूबसूरती से रूबरू जरुर करा सकते हैं। लेकिन हमें एक-दुसरे की जरुरत है, जैसा कि मेरे सहयोगी और मित्र ने अभी कहा, एक राजनीतिक निर्णय के तौरपर इस पर जोर देना बहुत जरुरी है, यूरोपीय संघ और भारत के बीच संवाद को बढ़ाने करने का निर्णय निश्चित रूप से बहुत ही महत्वपूर्ण आर्थिक आयाम है, लेकिन यह इससे कहीं अधिक भी है। यह राजनीति है, जरूरत है कि दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतंत्र अपने राजनीतिक संवाद और अपने राजनीतिक सहयोग में सुधार करें। और इसका मतलब है अर्थव्यवस्था, सुरक्षा, समुद्री सुरक्षा, सामाजिक बहुलवाद को बढ़ावा देने हेतु लोकतांत्रिक संस्थाओं की रक्षा इत्यादि। लेकिन पुर्तगाल के नज़रिए से मैं कहूंगा कि हम इस संवाद को यूरोपीय संघ और भारत तक सीमित नहीं कर सकते। हमें कम से कम एक त्रिकोणी संबंध चाहिए। यूरोपीय संघ में निश्चित रूप से, भारत एक प्रमुख खिलाड़ी है, लेकिन आपको यह भी मालूम है कि संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में सुधार पर पुर्तगाल की स्थिति बिल्कुल साफ है, हमने तय किया कि हमें सुरक्षा परिषद की संरचना में बदलाव करने की जरुरत है और इसके लिए हमें स्थायी सदस्य के रुप में ब्राजील, एक अफ्रीकी देश और भारत पर विचार करना होगा। लेकिन हमें एक दूसरा तरीका भी अपनाना होगा, त्रिभुज के दूसरे पक्ष पर हमारे एंग्लो सैक्सोनिक भागीदार आते हैं, हमें अमेरिका और ब्रिटेन के साथ मिलकर ऐसा करने की जरुरत है। जब मैं अमेरिका की बात करता हूं, तो मैं संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा की बात करता हूं। लेकिन आपको मालूम होगा कि, यह त्रिभुज बहुत महत्वपूर्ण है। यूरोपीय होने के नाते, जब इंडो पैसिफिक क्षेत्र की बात आती है, तो हम हमेशा चाहते हैं कि ब्रिटेन और अमेरिका हमारी तरफ रहें, और इस इंडो पैसिफिक क्षेत्र में भारत बहुत विशिष्ट तरीके से एक प्रमुख वैश्विक खिलाड़ी है और इस क्षेत्र में भारत का कद भविष्य में और अधिक बढ़ेगा।

समीर सरन: डॉ. जयशंकर, अंत में आप क्या कहना चाहेंगे, आप कितने महत्वाकांक्षी हैं और आपकी अपेक्षाएं क्या हैं?

डॉ. एस. जयशंकर, विदेश मंत्री: मैं उस बात पर आगे बढ़ना चाहूंगा, इसलिए आपके सवाल पर वापस आते हैं। आज दुनिया के बहुत सारे मानदंड, दुनिया की व्यवस्थाएं जहां अटलांटिक से परे का जुड़ाव होता है, वहां ब्रिटेन में एक पड़ाव की तरह है। लेकिन अगर आप प्रोफेसर सैंटोस सिल्वा द्वारा बताये गए तीन हिस्सों की बात करें, तो वे बड़े पैमाने पर लोकतांत्रिक दुनिया का सृजन करते हैं। अफ्रीका और एशिया तथा लैटिन अमेरिका में भी कई लोकतांत्रिक देश हैं। अब मैं जो बात कहना चाहूंगा वह इसके कारणों में से एक है कि हम लोकतांत्रिक मूल्यों को सार्वभौमिक या निकट सार्वभौमिक या आदर्श के रूप में क्यों मानते हैं, वास्तविकता यह है कि भारत ने लोकतांत्रिक मार्ग चुना। भारत ने 1947 से अपने लिए विकल्प तलाशने शुरू किए और यह उसके बाद के कई दशकों तक चलता रहा, और जिसने इसे कई मायनों में संगठनात्मक सिद्धांत और विकसित उत्तर से परे विश्व दृष्टिकोण का रूप ले लिया। इसलिए, मुझे लगता है, कि यह उन देशों के लिए जरुरी है, जिनकी बात मेरे पुर्तगाली सहयोगी ने कही है, कि वो एक साथ मिलकर काम करें। लेकिन यहां बड़े स्तर पर बातचीत एक मुद्दा है। यहां एक अलग बातचीत का भी मुद्दा है। इसपर बातचीत नहीं होनी चाहिए क्योंकि यह बेहद मजाकिया है। आज, सरकारें और नौकरशाही और नीति निर्माता दुनिया में बदलाव को लेकर बहुत अधिक जागरूक हैं, खासकर जब हम बहुध्रुवीयता, और पुनर्संतुलन, या उदाहरण के लिए, मीडिया की बात करते हैं। मुझे लगता है कि इसका हल कहीं बीच का रास्ता है। इसलिए हमें और अधिक बातचीत के साथ-साथ हमें और अधिक संतुलित बातचीत की जरूरत है, हमें यह जानने की जरूरत है कि कोई विचार किसी एक क्षेत्र में कैसे काम करता है और दुसरे क्षेत्र में कैसे काम करता है। इसलिए, मैं कहना चाहूंगा, और मैंने अपनी पुस्तक में भी यह कहा है कि यह भारत और पश्चिम का समय है और मुझे एहसास है कि पश्चिम आज एक बहुत ही विविध पश्चिम है। पश्चिम अपने आप में कुछ मायनों में बहुध्रुवीय है। भारत और पश्चिम को किसी अलग सहमति तक पहुंचने हेतु बैठकर बातचीत करने की जरूरत है।

समीर सरन: शायद इस सत्र को समाप्त करने का समय हो गया है। एक नए समझौते की जरूरत है और मैं प्रोफेसर सिल्वा और पुर्तगाल को यूरोपीय संघ की अध्यक्षता तथा द्विपक्षीय संबंधों को नई ऊर्जा व दिशा देने हेतु बधाई देता हूं। मैंने हमेशा इस बारे में लिखा और कहा है कि डॉ. जयशंकर शायद भारत के पहले विदेश मंत्री हैं जो हमारे भविष्य में ब्रुसेल्स की केंद्रीयता तथा महत्व को समझते हैं। और वह द्विपक्षीय संबंध को बढ़ाने के प्रयास जारी रखेंगे, जो काफी हद तक दिख भी रहा है। और मुझे उम्मीद है कि यूरोपीय संघ और भारतीय सोच के अनुसार इन दो महीन रेखाओं और कई अन्य देशों के बीच, हम इस वक्त की तीन बड़ी चुनौतियों यानि स्वास्थ्य और महामारी, डिजिटल समाजों का हल तलाश सकेंगे, और निश्चित रुप में इसमें, बदलती विश्व व्यवस्था और बदलते नियम भी शामिल हैं। अगर मुझे आपके सुपरस्टाइ खिलाड़ी नई दिल्ली में खेलते हुए देखने को मिले तो मैं क्रिकेट के बजाय फुटबॉल देखना पसंद करूंगा। तो तब तक के लिए, दोनों मंत्रियों के साथ इस बातचीत में हमारे साथ जुड़ने हेतु आपका धन्यवाद और आने वाले दिनों में हमारी अन्य बातचीत के लिए ओआरएफ को देखते रहें। आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद।

डॉ. एस. जयशंकर, विदेश मंत्री: धन्यवाद।

प्रोफेसर ऑगस्टो सैंटोस सिल्वा: धन्यवाद और आप सभी स्वस्थ रहें।

समीर सरन:
धन्यवाद।

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