सरकारी प्रवक्ता (श्री विष्णु प्रकाश) : आप सबको नमस्कार। आप सबका स्वागत है।
आप सब जानते हैं कि छठवीं जी-20 शिखर बैठक का आयोजन 3 एवं 4 नवंबर को केंस, फ्रांस में हो रहा है। भारत के प्रधान मंत्री भारतीय शिष्टमंडल का नेतृत्व करेंगे तथा वे 2 नवंबर को केंस के लिए रवाना होंगे। उनकी सहायता के लिए योजना आयोग के उपाध्यक्ष डा. मोंटेक सिंह
अहलूवालिया मौजूद रहेंगे जो कि जी-20 प्रक्रिया के लिए भारत के लिए शेरपा भी हैं।
हम बहुत आभारी हैं कि उपाध्यक्ष महोदय भारत के दृष्टिकोण, नजरिए आदि के बारे में आपसे बात करने तथा इस बारे में आपको बताने के लिए सहमत हो गए हैं कि जी-20 प्रक्रिया को हम किस रूप में देखते हैं। मैं उपाध्यक्ष महोदय से निवेदन करूंगा कि वे अपनी उद्घाटन टिप्पणी व्यक्त
करें और इसके बाद वे आपके कुछ प्रश्नों के भी जबाव देंगे।
उपाध्यक्ष, योजना आयोग (डा. मोंटेक सिंह अहलूवालिया) : आप सबका धन्यवाद। वास्तव में, मैं प्रश्न भी ले सकता हूँ क्योंकि यह ऐसा मुद्दा नहीं है जो बहुत भारत विशिष्ट है। स्पष्ट रूप से यह एक वार्षिक कार्यक्रम है तथा इसमें
वैश्विक अर्थव्यवस्था तथा मेरे अनुमान से यूरो जोन संकट के प्रबंधन से संबंधित मुद्दे हावी रहेंगे।
अभी-अभी एक यूरोपीय शिखर बैठक आयोजित हुई है जिससे कुछ संकेत प्राप्त हुए हैं तथा मैं पूरी तरह आश्वस्त हूँ कि नेता यूरो जोन की कठिनाइयों से निजात पाने तथा संपोषणीय, अधिक मजबूत, वैश्विक विकास पथ की दिशा में आगे बढ़ने की संभावनाओं की तलाश करेंगे।
वैश्विक अर्थव्यवस्था में मजबूती लाने से संबंधित मुद्दे कार्य सूची में शामिल थे। मजबूत एवं संपोषणीय विकास की रूपरेखा एक ऐसी कवायद थी जिसे जी-20 के देश संपन्न कर रहे थे। ऐसी उम्मीद थी कि इससे एक ऐसी प्रक्रिया का मार्ग प्रशस्त होगा जिसे पारस्परिक मूल्यांकन
प्रक्रिया (एमएपी) कहा जाता है।
मेरी समझ से भारत एवं चीन इसके सह अध्यक्ष हैं। इस समय वित्तीय प्रतिनिधि इस पर काम कर रहे हैं। वास्तव में, प्रस्ताव यह था जिसे हम प्रमुख जी-20 देशों में अपेक्षित नीतिगत पहलों के बारे में कह सकते हैं जो मूल रूप से तेजी से आगे बढ़ने के लिए वैश्विक अर्थव्यस्था
के लिए रूपरेखा प्रतिपादित करेगा। वे सब चीजें बीती बात हो गईं तथा उनका स्थान यूरो जोन के संकट ने ले लिया और स्पष्टत: यूरो जोन के संकट का समाधान एक आवश्यक पहला कदम बन गया।
अब हमने देख लिया है कि विशेष रूप से यूरो जोन के मुद्दों पर जी-20 में अब तक कोई चर्चा नहीं हुई है।
परंतु स्पष्टत: एक यूरोपीय शिखर बैठक का आयोजन हुआ है, उन्होंने कुछ कदम उठाए हैं। मैं आश्वस्त हूँ कि यह जी-20 के लिए इन प्रयासों के महत्व पर अपना दृष्टिकोण व्यक्त करने तथा यह बताने का अवसर है कि हम उनसे क्या अपेक्षा कर सकते हैं तथा यदि ये चीजें पहले
ही की जा चुकी हैं, तो विशेष रूप से पारस्परिक मूल्यांकन प्रक्रिया के संबंध में और क्या करने की जरूरत है। पारस्परिक मूल्यांकन प्रक्रिया में यूरो जोन के चार देश शामिल हैं – जर्मनी, इटली, फ्रांस, स्पेन – और निश्चित रूप से इसमें चीन एवं भारत समेत कुछ अन्य
देश भी शामिल हैं।
इसलिए पारस्परिक मूल्यांकन प्रक्रिया एक ऐसा सेट प्रतिपादित करेगी जिसे इनमें से प्रत्येक देशों में नीतिगत प्राथमिकता के रूप में माना जाएगा जिससे वैश्विक सुशासन के पुनरूज्जीवन के लिए वैश्विक स्थितियों का सृजन होगा।
वैश्विक अर्थव्यवस्था में अल्पकालिक विकास की संभावनाएं स्पष्ट रूप से बहुत अच्छी नहीं है तथा विकास की मुख्य दरों को संशोधित करके घटाया गया है। हम अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से इस बारे में उनका मूल्यांकन प्राप्त करेंगे कि स्वाभाविक आधार पर व्यवसाय के
क्षेत्र में क्या घटित होगा, यदि अधिक समर्थक नीतियां अपनाई जाती हैं तो क्या घटित होगा, आदि।
परंतु मैं समझता हूँ कि इस पर टिप्पणी करने से पहले हमें उस विश्लेषण को देख लेना चाहिए। कार्य सूची में अनेक अन्य मुद्दे भी हैं जो कुछ समय से मौजूद हैं, तथा निश्चित रूप से नेता उनकी की भी समीक्षा करेंगे।
सियोल शिखर बैठक में उन्होंने कार्य सूची में विकास को शामिल किया तथा इस संबंध में दो चीजें की गईं। बहुपक्षीय विकास बैंकों के कार्य के कार्यक्रम पर नजर रखने तथा यह देखने के लिए एक उच्च स्तरीय पैनल का गठन किया गया कि क्या कार्य का यह कार्यक्रम विकास की प्राथमिकताओं
में पर्याप्त रूप से योगदान कर रहा है।
राष्ट्रपति सरकोजी ने विकास की चुनौतियों के समाधान के नए तरीकों पर कुछ रिपोर्ट प्रस्तुत करने के लिए बिल गेट्स को भी आमंत्रित किया है, तथा समूह द्वारा इस रिपोर्ट पर भी नजर डाली जाएगी।
प्रश्न : यूरो जोन की योजना पर आपकी आरंभिक प्रतिक्रिया क्या है जिसकी अब तक घोषणा की गई है और उस पर सहमति हुई है? दूसरी बात, इस योजना के अंग के रूप में यूरोपीय देश यूरो की स्थिरता के लिए धन लगाने के लिए चीन एवं ब्राजील
तथा संभवत: भारत जैसे देशों पर नजरें गड़ाए हुए हैं। क्या यह कुछ ऐसी चीज नहीं है कि भारत संभावित रूप से योगदान करने का इच्छुक है?
उपाध्यक्ष, योजना आयोग : जहां तक यूरो शिखर बैठक पर प्रतिक्रिया का संबंध है, मेरी समझ से अधिकांश लोगों की प्रतिक्रिया तथा हमारी प्रतिक्रिया भी सकारात्मक है। इसमें कुछ बहुत महत्वपूर्ण वक्तव्य दिए गए हैं। इसमें ग्रीक के
बारे में कुछ बहुत विशिष्ट बात कही गई है। ग्रीक एक ऐसी समस्या है जो मजबूत होती जा रही है तथा इसका वास्तव में समाधान करने की जरूरत है, तथा हमने वास्तव में उस यथार्थवाद का स्वागत किया जिसका निर्माण उस पैरामीटर में हुआ है जिसे ग्रीक के लिए निर्धारित किया
गया है। वास्तव में, इसके अंतर्गत बहुत बड़ी मात्रा में स्वैच्छिक ऋण कटौती शामिल है।
इसका ब्यौरा अभी तक तैयार नहीं हुआ है परंतु वे उम्मीद कर रहे हैं कि यह दिसम्बर तक तैयार हो जाएगा। ऋण कटौती पर्याप्त नहीं है। ग्रीक को यूरोपीय संघ – सह – आईएमएफ सहायता पैकेज की भी जरूरत होगी। इस पर वार्ता करने की जरूरत होगी। हम ग्रीक को स्थिर बनाने से
संबंधित प्रयासों का स्वागत करते हैं तथा हमें वर्ष के अंत तक यह देखने के लिए प्रतीक्षा करनी होगी कि इसके लिए क्या विशिष्ट प्रस्ताव आते हैं।
जहां तक यूरोप के लिए सामान्यतया अधिक योगदान देने का संबंध है, भारत से निश्चित रूप से कोई विशिष्ट अनुरोध नहीं किया गया है। मैंने समाचार पत्रों के विवरण देखे हैं जिनकी लोग बात कर रहे हैं।
कुल मिलाकर हमारा दृष्टिकोण यह है कि हालांकि यह एक यूरो जोन की समस्या है, परंतु साथ ही यह एक वैश्विक समस्या भी है जिसके प्रभावों के चारों तरफ फैलने की संभावना है। इसलिए मेरी समझ से यह आवश्यक है कि यूरो जोन की स्थिरता की विश्वसनीय बहाली के अंग के रूप में
अंतर्राष्ट्रीय समुदाय वह सब सहायता प्रदान करे जिसकी जरूरत है। भिन्न-भिन्न चीजों के बारे में बातें की गई हैं। यूरो जोन शिखर बैठक वास्तव में इसका एक बहुत आरेखीय विवरण प्रस्तुत करती है। स्पष्टत: ईएफएसएफ का प्रयोग किया जाएगा।
ईएफएसएफ को उत्तोलित किया जाएगा जो परंपरागत प्रथा से एक नवाचारी प्रस्थान है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का प्रयोग किया जा सकता है, और फिर अलग से एक प्रस्ताव है कि सहायता के अन्य स्रोत भी हो सकते हैं। ऐसा अस्वाभाविक नहीं है कि जब देश संकट प्रबंधन से निपट
रहे हैं और आप के पास स्वैप की व्यवस्था तथा सब तरह की चीजें हैं। परंतु मुझे इस बात की जानकारी नहीं है कि विशिष्ट रूप से क्या प्रस्ताव किया जा रहा है। तथापि, सामान्य तौर पर मेरी समझ से अंतर्राष्ट्रीय स्थिरता लाने के लिए जिम्मेदार प्रमुख एजेंसी अंतर्राष्ट्रीय
मुद्रा कोष ही है। हम यूरोप को संसाधन सहायता प्रदान करने में निश्चित रूप से अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की सहायता करेंगे।
यदि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के अपने संसाधन पर्याप्त नहीं होते हैं, तो इससे यह मुद्दा उठेगा कि यह अन्य संसाधन कैसे प्राप्त करता है? ऐसा करने के लिए सुस्थापित तंत्र हैं जैसे कि उधार लेने की नई व्यवस्थाएं आदि। इनमें से एक भी वास्तव में उस स्तर पर नहीं
आया है जिस पर हम कोई सरकारी प्रतिक्रिया दे सकें। परंतु मेरी समझ से अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का यह दृष्टिकोण होना चाहिए कि यूरो जोन का स्थिरीकरण न केवल यूरो जोन के लिए अपितु वैश्विक अर्थव्यस्था के लिए भी एक महत्वपूर्ण चीज है। और हम इस दिशा में किसी भी तर्कसंगत
बहुपक्षीय प्रयास का समर्थन करेंगे।
प्रश्न : यूरो के संभावित बेल आउट के लिए उभरती अर्थव्यस्थाओं से सहायता के मुद्दे पर, क्या इस पर ब्रिक्स / उभरती अर्थव्यवस्थाओं का समन्वित दृष्टिकोण संभव है क्योंकि लोग वास्तव में चीन से संपर्क कर रहे हैं? दूसरा
प्रश्न वस्तुत: यूरोपीय संघ के मुद्दे पर है। इस बारे में बात हुई है कि ... (अस्पष्ट) ... संभवत: राजकोषीय समन्वय है, जो तत्वत: निगरानी एजेंसी है उसे संपूरित करने के लिए एक सुपर नेशनल एथारिटी होगी। उसका स्टेटस क्या है?
उपाध्यक्ष, योजना आयोग : जहां तक ब्रिक्स के मुद्दे का संबंध है, मैं भी अखबार पढ़ता रहता हूँ परंतु हम, और कम से कम भारत इस समय विशिष्ट प्रकार की सहायता के लिए किसी चर्चा में शामिल नहीं है। परंतु स्पष्ट रूप से द्विपक्षीय
सहायता की संभावना हमेशा मौजूद रहती है। द्विपक्षीय सहायता की कार्यविधि में अंतर हो सकता है। यदि यह सीधी स्वैप व्यवस्था होगी, तो इससे बहुत ज्यादा समस्याएं उत्पन्न नहीं होंगी। यदि यह एक नए वाहन को समर्थन देने से संबंधित है, जिसकी कुछ लोग बात कर रहे हैं,
तो यह संबंधित देशों के बीच की बात है।
यदि यह अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से सहायता के बारे में है, तो आपको यह निर्णय करना होगा कि उन संसाधनों का स्तर क्या है जो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के पास हैं तथा जिन संसाधनों की जरूरत है वे क्या हैं। और ऐसा करने के लिए आपको उस उत्तोलन को ध्यान में
रखना होगा जिसे उन्होंने ईएफएसएफ में पहले ही निर्मित कर चुके हैं।
अनेक तरह के ब्यौरे हैं। सामान्यतया मैं जिसकी बात कर रहा हूँ वह यह है कि हमें यूरोप को सहायता प्रदान करने से संबंधित किसी भी तर्कसंगत बहुपक्षीय प्रयास का समर्थन करना चाहिए जो उसकी स्थिरता के लिए अपेक्षित हो। हमें अभी तक कोई द्विपक्षीय अनुरोध या कोई चीज प्राप्त
नहीं हुई है। इसलिए इस पर मेरे पास कोई टिप्पणी नहीं है।
दूसरी बात राजकोषीय प्राधिकरण के बारे में थी। मेरी समझ से यह सर्वविदित है कि यूरो जोन की बुनियादी फाल्ट लाइनों में से एक यह है कि आपके पास केवल एक मुद्रा है परंतु कोई एकल राजकोषीय प्राधिकरण नहीं है। मूलत: राजकोषीय अनुशासन, जो इस तरह की व्यवस्था के साथ अवश्य
आना चाहिए, विभिन्न मस्ट्रीच्ट नियमों आदि के माध्यम से आने की उम्मीद थी, जिसने स्पष्टत: काम नहीं किया तथा और वस्तुत: उन देशों द्वारा उनको तोड़ा गया जो आज संकट में नहीं हैं। यूरोपीय शिखर बैठक के वक्तव्य से मैंने जो पढ़ा उसके आधार पर, मेरा मानना है
कि इस बात पर एक तरह से स्वीकृति है कि राजकोषीय अनुशासन के लिए आपको तंत्रों की जरूरत होती है।
मेरी समझ से उन्होंने जिस राजकोषीय अनुशासन का प्रस्ताव किया है वह कोई राजकोषीय संप्रभुता सरेण्डर नहीं करता अपितु यह किसी दंड के बिना अत्यधिक अंतर्बेधी समकक्ष जांच एवं दबाव की प्रणाली लागू करता है।
इसलिए, यदि आप कठिनाइयों में होते हैं, तो लोग आपकी ओर देखते हैं, सुझाव देते हैं। यदि आप कोई प्रस्ताव पारित करते हैं, तो उस पर यूरो जोन के विभिन्न पर्यवेक्षकों, स्वतंत्र पर्यवेक्षकों, आदि द्वारा टिप्पणी की जाएगी। परंतु राजकोषीय संप्रभुता के लिए कोई वास्तविक
नुकसान नहीं होता है, जो कुछ कहा जाता है उसे न करने के लिए कोई वास्तविक दंड नहीं होता है।
इसलिए मेरी समझ से यह सही दिशा में प्रस्ताव है क्योंकि इस बात पर सामान्य सहमति है कि आप बहुत अधिक खतरे में पड़ जाते हैं यदि आप उस लोच को सरेण्डर कर देते हैं जिसे आपकी अपनी मुद्रा प्रदान करती है तथा आप स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए अपेक्षित किसी प्रकार
का राजकोषीय सुधार स्थापित नहीं करते हैं। मेरी समझ से यह सही दिशा में प्रस्ताव है। यह ब्यौरा तैयार करने की जरूरत है कि यह प्रस्ताव कितनी दूर तक जाएगा तथा क्या यह प्रभावी होगा।
प्रश्न : पारस्परिक सहायता प्रक्रिया के सदस्य के रूप में भारत कौन सी भूमिका निभाने की अपेक्षा कर रहा है? क्या आपने अपनी ओर से कोई विशिष्ट सुझाव दिया है?
उपाध्यक्ष, योजना आयोग : सबसे पहले, यह एक पारस्परिक प्रक्रिया है तथा कनाडा एवं भारत इस प्रक्रिया के सह अध्यक्ष हैं। इसलिए हम मूल रूप से सभी देशों से बात कर रहे हैं। तत्वत: कार्यविधि यह है कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष
एक तरह का तकनीकी मूल्यांकन करे और कहे कि अमुक देश को यह कार्य करना चाहिए तथा दूसरे देश को यह कार्य करना चाहिए और इसकी अन्य सब बातों को उल्लेख होना चाहिए। और यह एमएपी प्रक्रिया में एक इनपुट बन जाता है। इसलिए सैद्धांतिक रूप से एमएपी प्रक्रिया के सभी प्रतिभागी,
जो जी-20 के सभी देश हैं, सामूहिक रूप से इस बारे में दृष्टिकोण अपनाएंगे कि उन नीतियों पर सर्वसम्मति क्या है जिनका विभिन्न देशों को अनुसरण करना चाहिए।
कमोवेश सह अध्यक्ष बनकर हम इसमें बहुत सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। यह जो कुछ कहता है उसके बारे में हम स्पष्टत: चिंतित हैं। भारत के बारे में एमएपी प्रक्रिया जो कुछ कहती है उसके प्रत्युत्तर में हम सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। हम इस बात का मूल्यांकन करने में
भी सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं कि समग्र परिणाम क्या होगा, और सबसे पहले क्या अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का विश्लेषण सही है या सही नहीं है; और दूसरी बात, यदि विभिन्न लोग इससे असहमत होते हैं और जैसा कि वे सामान्यतया करते हैं, तो क्या हमने एक ऐसा विकल्प
तैयार किया है जो विश्वसनीय हो। परंतु हम किसी अन्य से अधिक बड़ी भूमिका नहीं निभा रहे हैं।
मेरा अभिप्राय यह है कि इस प्रक्रिया एवं सामान्य निगरानी प्रक्रिया के बीच संपूर्ण अंतर उस सामान्य निगरानी में है जिसे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष अपनाता है एवं अपने बोर्ड में ले जाता है। हो सकता है कि बोर्ड इससे सहमत हो जाए या सहमत न हो परंतु अंतर्राष्ट्रीय
मुद्रा कोष का एक दृष्टिकोण होता है। यहां अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष हमें केवल इनपुट प्रदान कर रहा है। इसलिए वास्तव में नेताओं के पास जो जाएगा वह अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का दृष्टिकोण नहीं है अपितु वह है जो रूपरेखा कार्य समूह से आया है जिसके कनाडा एवं भारत
सह अध्यक्ष हैं।
प्रश्न : यह शिखर बैठक किस तरह इन सभी देशों में आम आदमी के जीवन को परिवर्तित करेगी? ऐसी धारणा है कि इन बैठकों में अधिकांश निर्णय समाज के सम्पन्न वर्गों से संबंधित होते हैं। पृष्ठभूमि में वाल स्ट्रीट के विरोध प्रदर्शनों
तथा भारत में मुद्रा स्फीति की ऊंची दर को ध्यान में रखते हुए, इन सब मुद्दों पर किस तरह चर्चा होगी जो आम आदमी को प्रभावित करते हैं?
उपाध्यक्ष, योजना आयोग : आम आदमी के लिए प्रभावों पर ध्यान केंद्रित किए बिना कोई भी सरकार स्थूल नीतिगत निर्णय नहीं लेती है। इसलिए भारत सरकार का दृष्टिकोण यह है कि मुद्रा स्फीति को स्पष्ट रूप से नियंत्रित करना आम आदमी
के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।
परंतु साथ ही हम एक ऐसी वैश्विक अर्थव्यस्था चाहते हैं जो भारत के लिए त्वरित विकास का समर्थन करे। और आंतरिक रूप से हम यह आश्वस्त करने के लिए काम कर रहे हैं कि हमारा विकास समावेशी हो। यह हमारा उद्देश्य है। अब हम अन्य देशों को यह नहीं बता रहे हैं कि
अपने विकास को समावेशी बनाने के लिए उनको क्या करना चाहिए। परंतु उनकी सरकारें ऐसा कर रही हैं।
मेरी समझ से शिखर बैठक में प्रमुख सरोकार एक ऐसा वैश्विक परिवेश सृजित करना है जो निष्पक्ष हो तथा त्वरित विकास में सहायक हो। इस बारे में हर देश की अपनी खुद की राय होती है कि वैश्विक परिवेश किस तरह का होना चाहिए। निश्चित रूप से हमारे भी अपने विचार हैं तथा हम
उसे व्यक्त करेंगे।
मैं इस बात का भी उल्लेख करना चाहूँगा कि कार्य सूची में ऐसी अनेक मदें शामिल हैं जो विकास से संबंधित मुद्दों पर प्रत्यक्ष रूप से अधिक केंद्रित हैं। उदाहरण के लिए, कृषि ऐसे मुद्दों में से एक है। इस बारे में बहुत चिंता है कि खाद्य की कीमतें विश्व में क्यों
बढ़ रही हैं? क्या यह मांग एवं आपूर्ति में असंतुलन के कारण है जिसमें आपको एक निश्चित तरीके से इसका समाधान करना होता है? अथवा क्या यह केवल बहुत अधिक तरलता संबंधी सट्टेबाजी के कारण है जिसका निदान एक भिन्न तरीके से करना होगा? आज रोजगार जैसी चीजों पर बहस हो
रही है।
हम कैसे आश्वस्त करते हैं कि विकास प्रक्रिया से रोजगार का भी सृजन हो? औद्योगिक देशों में पिछले 2 या 3 वर्षों में बेरोजगारी के स्तर में भारी परिवर्तन हुआ है। इसलिए यह एक ऐसी चीज है जिसको लेकर वे बहुत चिंतित हैं। परंतु हम भी एक ऐसी विकास प्रक्रिया को लेकर चिंतित
हैं जो भारत में रोजगार का समर्थन करती है – खुला बाजार, हमारे निर्यात के लिए अक्सेस तथा इसी तरह की अन्य चीजें। इसलिए इन सब चीजों को एक साथ शामिल किया जाएगा। निश्चित रूप से एक परंपरागत विकास एजेंडा, विकास सहायता का मुद्दा है, उभरते बाजार वाले देशों में अवसंरचना
का वित्त पोषण किस तरह हो। इसलिए ये सब चीजें बैठक में उठेंगी।
प्रश्न : मेरा प्रश्न पिछले प्रश्न के बहुत करीब है। विश्व के नेताओं ने यह तैयार किया है, तैयार कर रहे हैं कि अर्थव्यवस्था को किस तरह पुनरूज्जीवित किया जाए, परंतु हमें एक के बाद एक संकट का सामना करना पड़ रहा है। ऐसा
लगता है कि पुनरूद्धार की प्रक्रिया सही दिशा में नहीं है क्योंकि यदि यह सही दिशा में होती तो पुनरूद्धार पहले ही हो गया होता। जब भी हरी कोपलें निकल रही होती हैं तभी वे मुरझाने लग जाती हैं तथा वैश्विक आर्थिक संकट की शीत ऋतु ऐसी है जो कभी खत्म नहीं हो सकती है।
इस संदर्भ में, लोग भारत एवं चीन की ओर देख रहे हैं जहां विकास की प्रक्रिया घटित हो रही है। भारत में विकास की प्रक्रिया घटित हो रही है, मैं भी इससे सहमत हूँ परंतु वास्तविक चीज यह है कि भारत ... का निवास स्थान बन गया है, यहां पर भारी संख्या में ... हैं।
सरकारी प्रवक्ता : क्या आप कृपया प्रश्न पर आएंगे?
प्रश्न : मैं प्रश्न पर आऊँगा। इसके साथ ही भारत अरबपतियों का देश भी है। क्या आपको नहीं लगता कि पुनरूद्धार की प्रक्रिया सही दिशा में नहीं है और आज की वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था अच्छा काम नहीं कर सकती है, और पूंजीवाद
के अंदर ही इसके विनाश के बीज मौजूद होते हैं और इसलिए समाजवाद, वस्तुत: लोकतांत्रिक समाजवाद अपरिहार्य है?
उपाध्यक्ष, योजना आयोग : ऐसा है कि वास्तव में जी-20 की ब्रीफिंग के संबंध में अनेक प्रश्नों के उत्तर देने हैं। निश्चित रूप से यह एक प्रासंगिक प्रश्न है और मेरी समझ से यह प्रश्न और अधिक प्रासंगिक है अगर आप इसे भारत के
संदर्भ में पूछ रहे हैं। मैं अन्य देशों के संदर्भ में उत्तर नहीं दे सकता। दरअसल यह इन प्रश्नों को पूछने के लिए उपयुक्त मंच नहीं है। मेरा अपना विचार यह है कि 2008 में वैश्विक अर्थव्यवस्था को जो झटके लगे हैं उसे देखते हुए जी-20 ने गिरावट को रोकने में बहुत
ही बढि़या कार्य किया। 2008 में विश्व में विकास की दर ऋणात्मक थी और 2010 में आश्चर्यजनक रूप से विकास की दर थोड़ी सकारात्मक थी।
इस बात की कभी उम्मीद नहीं थी कि 2011 भी वर्ष 2010 की तरह ही होगा, ऐसी उम्मीद थी कि विकास की गति धीमी होगी। परंतु आज यह बदतर होने जा रही है। और इसका कारण यह है कि आज विश्व द्वितीय वैश्विक आर्थिक संकट से गुजर रहा है जो यूरोप में उभर रहे संप्रभु ऋण संकट
के कारण है। हमें इस संकट से निपटने के लिए जी-20 को एक मौका देना होगा।
इस मुद्दे पर कि क्या इसमें व्यवस्था की कुछ मौलिक कमजोरी शामिल है, यह ऐसी चीज है जिसके बारे में मैं आश्वस्त हूँ कि इस पर लोगों की असहमति निश्चित रूप से बनी रह सकती है और हमें उसे प्रोत्साहित भी करना चाहिए। मैं समझता हूँ कि यह बहुत रोचक विषय होगा, परंतु
मुझे संदेह है कि मैं इस मुद्दे पर इस प्रेस वार्ता में कोई चीज शामिल कर सकता हूँ।
प्रश्न : क्या हमारे प्रधान मंत्री तथा राष्ट्रपति ओबामा के बीच और राष्ट्रपति हू जिंताओ एवं हमारे प्रधान मंत्री के बीच कोई द्विपक्षीय बैठक होगी?
उपाध्यक्ष, योजना आयोग : सच कहूँ तो इस बारे में मुझे पता नहीं है। प्रधान मंत्री कार्यालय के पास संभवत: इस बारे में अधिक अद्यतन जानकारी होगी। इन महानुभावों का डेढ़ दिन का कार्यक्रम बहुत व्यस्त है तथा ऐसी अवधियां भी हैं
जब वे वार्ता करेंगे। इसलिए मैं आश्वस्त हूँ कि उनको एक दूसरे से बात करने का मौका मिलेगा। परंतु मेरे पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं है कि क्या यह औपचारिक द्विपक्षीय बैठक होगी या नहीं। वे पूर्वी एशिया में थोड़े समय बाद ही पुन: मिलने जा रहे हैं। यहां का
दृश्य थोड़ा भिन्न है।
प्रश्न : जहां तक भारतीय अंशदान का संबंध है, क्या भारत अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की अपेक्षा विश्व बैंक पर ग्राहक के रूप में अधिक बल दे रहा है... (अस्पष्ट) ... ?
उपाध्यक्ष, योजना आयोग : हम वहां पृष्ठांकित होकर नहीं जाते हैं। इस समय हमारे सामने एक बड़ा यूरो जोन संकट है। यूरो जोन के संकट में विश्व बैंक के पास निभाने के लिए कोई भूमिका नहीं है। विश्व बैंक को विकास की प्रक्रिया में
बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है तथा हम इस मुद्दे को उठाएंगे, जैसा कि हम अक्सर करते हैं।
परंतु इस समय उनके सामने सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि क्या यूरोप के अंदर वित्तीय प्रबंधन से ग्रीक की समस्या के शीघ्र समाधान का मार्ग प्रशस्त हो रहा है, और क्या यह यूरोपीय परिधि के अन्य देशों को संक्रमित कर रहा है? इस प्रक्रिया में विश्व बैंक की कोई भी
भूमिका नहीं है।
मैं आश्वस्त हूँ कि उनके पास विश्लेषणात्मक इनपुट हैं परंतु यह वास्तव में जी-20 है। विश्व बैंक भी कहता है कि जो चीजें हो रही हैं वे वैश्विक अर्थव्यवस्था पर यूरो जोन के संकट का प्रभाव हैं। इसलिए इस दृष्टि से एक इनपुट है। परंतु यूरो जोन के संकट के समाधान
में, मेरी समझ से विश्व बैंक की कोई भी भूमिका नहीं है।
कार्य सूची की एक मद विकास से संबंधित है और इसी से संबंधित है विकास का वित्त पोषण। निश्चित रूप से हमारी यह राय है कि विश्व बैंक की दीर्घावधिक विकास वित्त पोषण की भूमिका भारत जैसे उभरते बाजार वाले देशों के लिए आज भी महत्वपूर्ण है। मैं समझता हूँ कि हमने
अक्सर कहा है कि जब तक कुछ नहीं किया जाता है, विश्व बैंक के ऋण की मात्रा अगले वर्ष तेजी से सिमट कर बहुत कम हो जाने की संभावना है जो वांछनीय नहीं है। इस समय यह शिखर बैठक के समक्ष सबसे बड़ा मुद्दा नहीं है।
प्रश्न : यह एक गैर जी-20 प्रश्न है। क्या आप केंद्रीय मंत्री के वी थामस की इस कथित टिप्पणी पर प्रतिक्रिया व्यक्त करना चाहेंगे कि खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ने के लिए भारत का धनाढ्य वर्ग जिम्मेदार है?
उपाध्यक्ष, योजना आयोग : जब मैं आश्वस्त हो जाता हूँ कि उन्होंने जो कुछ कहा है उसे मैं हूबहू जानता हूँ तभी मैं मंत्रियों द्वारा की गई टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने में बहुत ध्यान से विचार करता हूँ। परंतु यदि
मैं प्रेस में किसी के द्वारा उनके नाम से की गई टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया करना शुरू कर दूँ, तो यह अच्छी बात नहीं होगी। इसलिए, वस्तुत: मैं प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करूंगा। मुझे सचमुच पता नहीं है कि उन्होंने वास्तव में क्या कहा है।
सरकारी प्रवक्ता: मैं एक अनुरोध करना चाहता हूँ। उपाध्यक्ष महोदय के पास अधिकतम दस मिनट और हैं। इसलिए हमें यात्रा से संबंधित प्रश्न ही पूछने चाहिए।
उपाध्यक्ष, योजना आयोग: मुझे राज्यपाल सम्मेलन के लिए राष्ट्रपति भवन जाना है। इसलिए मेरे पास समय नहीं है परंतु प्रोटोकॉल, आदि के कारण यहां हूँ। दस मिनट उत्तम है।
प्रश्न: जी-20 से संबंधित एक प्रश्न। महोदय, आपने कहा कि यूरोप की स्थिति पर शिखर बैठक में प्रमुखता से चर्चा होगी। अमरीका में स्थिति के बारे में क्या होगा? क्या इस पर भी चर्चा होगी?
उपाध्यक्ष, योजना आयोग: निश्चित रूप से। इस बारे में कोई प्रश्न नहीं है। अमरीका ने कोई अचानक अचम्भा प्रस्तुत नहीं किया है। स्थिति यह है कि अमरीका में विकास की गति थोड़ी कमजोर है परंतु वास्तव में अधिकांश लोग कहते हैं
कि उत्साह घट गया है। अर्थव्यवस्था की स्थिति इतनी बुरी नहीं है।
अमरीका में वास्तविक समस्या यह कि ऐसा नहीं नग रहा है कि वहां बेरोजगारी में गिरावट आ रही है। अमरीका के आकार को देखते हुए, किसी पारस्परिक मूल्यांकन प्रक्रिया को इस प्रश्न का समाधान करना होगा कि अमरीका अपनी स्वयं की नीतियों का अंशांकन किस तरह करता है। अब
यदि आप बहुत संकीर्ण नजरिया अपनाते हैं तथा कहते हैं कि देखो, अमरीका पर भी बहुत अधिक सार्वजनिक ऋण है, इसलिए इसे अपना राजकोषीय घाटा कम करना चाहिए, तो आप वास्तव में अमरीका के लिए नीतियों के बहुत ही विरोधाभासी सेट की सिफारिश करेंगे जिसका बाकी दुनिया पर छलकने वाले
प्रभाव होंगे और यहां तक कि अमरीका में भी, इस पर विचारों में बहुत भिन्नताएं हैं।
अनेक लोग कहेंगे कि अमरीका को यह करना चाहिए कि वह ऐसे कदम उठाए जिससे यह विश्वास बढ़े कि समय गुजरने के साथ अमरीकी घटा अनिवार्य रूप से भयंकर संकुचन किए बिना कम होगा। इसलिए मेरा अभिप्राय यह है कि अमरीका भी यह पूछेगा कि अन्य देश क्या संकेत दे रहे हैं, कौन मांग
में विस्तार करने जा रहा है और यह संपूर्ण पारस्परिक मूल्यांकन प्रक्रिया का अंग है। ऐसा कोई प्रश्न नहीं है कि अमरीका के लिए नीतिगत संकेत एमएपी प्रक्रिया का बहुत महत्वपूर्ण अंग होंगे।
प्रश्न: महोदय, जिस तरह से चीजें साफ हो रही हैं, उससे ऐसा लगता है कि जी-20 एवं वैश्विक नेता एक के बाद दूसरे संकट से टकरा रहे हैं जबकि 2008 के संकट के बाद हमारा एजेंडा वैश्विक असंतुलन को दूर करना और एक ऐसा वास्तुशिल्प
सृजित करना था जिससे इस तरह के संकट को फिर से प्रोत्साहन न मिले। क्या आपको नहीं लगता है कि जो घटित हो रहा है उसके शमन में यह गुम हो रहा है तथा एजेंडा में इसे वापस लाने के लिए भारत क्या कर रहा है?
उपाध्यक्ष, योजना आयोग: तथ्य यह है कि कोई संकट है जिसका अभिप्राय यह है कि जी-20 परिस्थितियों के परिवर्तनकारी सेट से जूझ रहा है। मैं नहीं समझता कि इस पर हमारा दृष्टिकोण किसी अन्य के दृष्टिकोण से भिन्न है। इस विशिष्ट
मामले में आपके पास जो है, वह संकट है जिसका अवक्षेप निजी क्षेत्र को ऋण देने के कारण नहीं हुआ है जैसा कि यूरोप में हुआ था बल्कि अनियंत्रित संप्रभु ऋण के कारण ऐसा हुआ है। इसलिए एक मायने में यह समान तरह का संकट है परंतु एक अन्य मायने में यह थोड़े भिन्न कारकों
से पैदा हुआ है।
मेरी समझ से इसके पैदा होने के कारणों में से एक कारण यह है कि यूरो जोन की वित्तीय प्रणाली ने वास्तव में इस मायने में सही ढंग से संकेतों को नहीं पढ़ा कि जब आप मुद्रा के अंतरों से निजात पा जाते हैं, तो आप उससे भी निजात पा जाते हैं जिसे मुद्रा जोखिम कहा जाता
है। इसलिए जिस सीमा तक आपकी ब्याज दर मुद्रा के जोखिम को प्रतिबिंबित करती है, उस सीमा तक यह एक लाभ है।
और आपकी ब्याज दर कम होनी चाहिए। लेकिन आप देश के जोखिम या मुद्रा के जोखिम से निजात नहीं पाते हैं। इसलिए इसका अभिप्राय यह नहीं है कि यदि आप उतना बड़ा घाटा चालू रखते हैं जितना बड़ा घाटा आप चालू रखना चाहते हैं, तो आपकी ब्याज दर अब भी कम रहेगी।
मेरी समझ से अनुदर्शन में यह बहुत स्पष्ट है कि यूरोपीय बैकों ने किसी न किसी प्रकार की धारणा के तहत संप्रभुता के बांडों को उधार दिया या वस्तुत: खरीदा कि ऋण चुकाने में कोई समस्या नहीं होगी। इसलिए आज यह उसकी कीमत भुगत रहा है। जब ये चीजें उत्पन्न हो गई
हैं, तो सुधारात्मक कदम भी उठाना होगा। हमें देखना होगा कि ये कदम कितने प्रभावी हैं।
प्रश्न: आपने कहा है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए माहौल सृजित करना शिखर सम्मेलन का फोकस होगा। मैं इस बारे में आपके विचार जानना चाहता हूँ कि जहां तक विश्व अर्थव्यवस्था का संबंध है, विशेष रूप से पूरे विश्व में विषमता
के संदर्भ में जहां सबसे धनी 20 देशों के पास 80 प्रतिशत से अधिक संसाधन हैं, जी-20 कितना प्रतिनिधि मूलक है?
इस संदर्भ में, जहां तक पूरे विश्व का संदर्भ है, जी-20 कितना प्रतिनिधि मूलक है? बहरहाल, हमारे पास संयुक्त राष्ट्र संघ है और फिर इसे और प्रतिनिधि मूलक बनाने के लिए जी-8 से लेकर जी-20 तक अन्य छोटे समूह हैं। जहां तक पूरे विश्व का संबंध है, आप इसकी प्रतिनिधिमूलकता
का मूल्यांकन कैसे करते हैं?
उपाध्यक्ष, योजना आयोग: यह बहुत अच्छा प्रश्न है। मेरी समझ से आपने इसे ठीक से रखा है। यह जी-8 का लोकतंत्रीकरण है किंतु यह लोकतंत्रीकरण कुछ बड़े देशों को शामिल करके है। यह निश्चित रूप से प्रतिनिधिमूलक नहीं है। यह कोई औपचारिक
संगठन नहीं है, यह संयुक्त राष्ट्र या यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष या विश्व बैंक से भिन्न है, जो औपचारिक अंतर्राष्ट्रीय संगठन हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रत्येक देश का एक वोट होता है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष में प्रत्येक देश मतदान करता
है, उसका शेयर चाहे जो भी हो तथा इसमें भारी अंतर हैं। परंतु किसी न किसी अर्थ में हर किसी को प्रतिनिधित्व प्राप्त होता है। जी-20 बस 20 प्लस पांच देश है जिन्हें आमंत्रित किया जाता है।
इसलिए, स्पष्ट रूप से यह औपचारिक रूप से प्रतिनिधिमूलक नहीं है। इस व्यवस्था की स्टेंथ बस यह है कि जी-20 में जो देश शामिल हैं उनका जीडीपी विश्व के जीडीपी का 80 प्रतिशत है। इसलिए वस्तुगत स्थिति यह है कि यदि देशों का यह समूह किसी चीज पर सहमत होता है, तो
आप उस चीज पर विश्व की 80 प्रतिशत जीडीपी की कमोवेश सहमति प्राप्त करते हैं।
और चूंकि संभवत: वे अपने अन्य सहयोगियों के साथ आउटरिच का काम करते रहते हैं, वे अन्य संगठनों के संपर्क होते हैं - यह ऐसा है नहीं है जैसे कि इन देशों ने औपचारिक अंतर्राष्ट्रीय प्रतिनिधिमूलक संरचना से आप्ट आउट किया है – सामान्य सहमति पर पहुंचने का यह एक
तरीका बन जाता है, जो तब प्राप्त होता है जब किसी औपचारिक अंतर्राष्ट्रीय संगठन द्वारा इसे पृष्ठांकित कराने की जरूरत होती है, तो इसे जाना पड़ता है तथा उसे कराना पड़ता है। परंतु यह संभावना बनी रहती है कि वह घटित होगा या नहीं। यथार्थत: यही वह चीज है जिसे जी-7
किया करता था। वे स्वयं डील फिक्स करेंगे और फिर अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष या अन्य संस्थाओं के पास जाएंगे तथा उनके बोर्ड से उसे पारित कराएंगे।
इसलिए अब उनमें से 20 देश संभवत: वही कार्य करेंगे। मेरी समझ से इस आधार पर इसकी निंदा करना भूल होगी कि यह प्रतिनिधिमूलक नहीं है। जी192 का होना बहुत सार्थक नहीं है। इसलिए यह वह है जिसे यह करता है। यह कोई एवजी नहीं है। संयोग से, हमने तथा चीन जैसे अन्य विकासशील
देशों ने लगातार यह कहा है कि बहुपक्षीय रूपरेखा में जो कार्य करने की जरूरत है उसे बहुपक्षीय रूपरेखा में ही करना चाहिए। लेकिन हम इस बारे में सलाह मशविरा कर सकते हैं कि हमारा दृष्टिकोण क्या होगा। इसलिए यह अंतर्राष्ट्रीय सहमति पर पहुंचने की अधिक संभावना प्रदान
करती है।
मेरी समझ से प्रधान मंत्री कैमरून से केन्स शिखर सम्मेलन में वैश्विक अभिशासन एवं जी-20 पर एक पेपर प्रस्तुत करने की अपेक्षा है। इसलिए यह काफी रोचक होगा क्योंकि मैं आश्वस्त हूँ कि वे इनमें से कुछ मुद्दों को स्पर्श करेंगे।
प्रश्न: महोदय, सतत वैश्विक संकट को देखते हुए, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के प्रवाह में थोड़ा उतार आया है। क्या आप इस विकल्प का प्रयोग पूंजी प्रवाह प्राप्त करना जारी रखने के लिए भारत में निवेश के लिए अच्छा माहौल होने
का संदेश भेजने तथा उन सब सरोकारों को दूर करने के लिए करेंगे जो अभिशासन के मुद्दे को देखते हुए निवेश के संबंध में उनके हो सकते हैं?
उपाध्यक्ष, योजना आयोग: आप निवेशकों की सरकारों से बात करके उनके सरोकारों को शांत नहीं कर सकते हैं। आप केवल निवेशकों से बात करके निवेशकों के सरोकारों को शांत कर सकते हैं। इस प्रकार के मुद्दों पर यह ध्यान का केंद्र बिंदु
नहीं होगा। मेरी समझ से पूरा विश्व जी-20 शिखर बैठक पर नजरें गड़ाए बैठा है तथा स्वयं से यह प्रश्न पूछ रहा है कि क्या वे वास्तव में समीचीन ढंग से विश्व अर्थव्यवस्था का प्रबंधन करने में सामूहिक जिम्मेदारी की भावना प्रदर्शित करने जा रहे हैं या नहीं? और
क्या संकेतों में कोई परिवर्तन है जैसे कि वह संकेत जिसके बारे में मेरे दोस्त यहां बात कर रहे हैं? क्या वे पूंजीवाद या किसी चीज के लिए निधन सूचना जारी कर रहे हैं? ये ऐसी चीजें हैं जिनकी ताक में वे रहेंगे।
मेरी समझ से इससे उसका कुछ मूल्यांकन सामने आएगा जो जी-20 की राय में अच्छी तरह काम करने वाली वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए उपयोगी है। फिर मेरी समझ से निवेशक इस बारे में अपना मन बनाएंगे कि क्या वे इस पर जी-20 से सहमत हैं या नहीं। यह थोड़ी गूढ़ प्रक्रिया है।
परंतु मेरी समझ से यह उपयोगी है। इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।
प्रश्न: महोदय, आपने कहा कि इसमें छलकने की क्षमता है। डा. सिंह ने भी कुछ समय पहले ऐसा ही कहा था। हम किन सुझावों के साथ, किस सलाह के साथ, किन अनुदेशों के साथ जी-20 में जा रहे हैं? भारत का दृष्टिकोण क्या होगा? क्या आप इस
पर कुछ प्रकाश डाल सकते हैं? दूसरी बात, क्या आप समझते हैं कि ब्रेटन वुड्स के सूत्र में परिवर्तन करने के लिए यह उपयुक्त समय है तथा क्या भारत इसके लिए आधार तैयार करने जा रहा है?
उपाध्यक्ष, योजना आयोग: ब्रेटन वुड्स के सूत्र से आपका अभिप्राय क्या है?
प्रश्न: यह मूल रूप से अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक जैसी संस्थाओं में परिवर्तन, अधिक प्रतिनिधित्व के बारे में है?
उपाध्यक्ष, योजना आयोग: जहां तक प्रतिनिधित्व का संबंध है, हमारा यह अडिग दृष्टिकोण रहा है कि हमें इन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं की जरूरत है। इसलिए हम उनको समाप्त करने के पक्ष में नहीं हैं। परंतु उनको अधिक प्रतिनिधित्वमूलक
होने की जरूरत है ताकि वे परिवर्तन परिलक्षित हों जो विश्व अर्थव्यवस्था में घटित हुए हैं। और वह चीज जो रूपांतरित होनी है वह अधिकाधिक विकासशील देशों के लिए अधिक मताधिकार एवं दायित्व है। एक वर्ष पहले जी-20 इसे थोड़ा परिवर्तित करने में सफल हुआ। इसलिए यह सही
दिशा में परिवर्तन है। हमारी राय में किसी भी रूप में यह उस परिवर्तन के अनुरूप नहीं है जिसकी जरूरत है। लेकिन यह सही दिशा में परिवर्तन है।
जहां तक इस मुद्दे का संबंध है कि हम क्या करने जा रहे हैं, मेरी समझ से पारस्परिक मूल्यांकन प्रक्रिया का संपूर्ण प्वाइंट यह है कि प्रत्येक देश फूट न डालें और मांगों की अपनी सूची प्रस्तुत न करें। आज ही या हो सकता है कि कल तक, आर्थिक कार्य सचिव तथा अन्य
वित्त मंत्रालयों में उनके सहयोगी उस पर नजर रखेंगे जो जी-20 की एमएपी प्रक्रिया कहती है। मेरी समझ से जी-20 की एमएपी प्रक्रिया से सिफारिशों का एक समूह उत्पन्न होगा जिसमें यह कहा जाएगा कि अमरीका के लिए यह कार्य है जिसे उन्हें करना चाहिए, इटली के लिए यह कार्य
है जिसे उन्हें करना चाहिए, भारत के लिए यह कार्य है जिसे उन्हें करना चाहिए।
और हम स्पष्ट रूप से यह आशा करते हैं कि इनमें से प्रत्येक देश या इन देशों का संघ, जहां तक हमारा सरोकार है, निश्चित रूप से इस बात का समर्थन करेगा कि हम सही पथ पर हैं। वैश्विक अर्थव्यवस्था की दृष्टि से, हम सही पथ पर हैं क्योंकि हमारा बड़ा अतिरेक नहीं
है, हमारी कोई निश्चित विनिमय दर नहीं है। चालू खाते का हमारा घाटा अधिक है – इस तथ्य का अभिप्राय यह है कि हम वैश्विक मांग में योगदान कर रहे हैं और जिस तरह हम स्वयं कह रहे हैं उसी तरह निश्चित रूप से वे कहेंगे कि हमें अपना राजकोषीय घाटा कम करना चाहिए क्योंकि
वास्तव में वैश्विक होने के लिए आपको हर समय ऐसा करने की जरूरत होती है। परंतु हमें प्रतीक्षा करनी होगी तथा देखना होगा कि अन्य देश कितना सहमत होते हैं।
प्रश्न: महोदय, यदि यूरो जोन का संकट एक निश्चित अवधि के अंदर हल नहीं होगा, तो भारत पर इसका कैसा प्रभाव होगा?
उपाध्यक्ष, योजना आयोग: मैं नहीं समझता कि यूरो जोन के संकट का भारत पर प्रभाव पूरे विश्व पर इसके प्रभाव से किसी तरह भिन्न होगा। मैं नकारात्मक सोच प्रदर्शित नहीं करना चाहता हूँ। परंतु यह ज्यादातर विद्वतापूर्ण कवायद होगी।
इसका आशय यह है कि यूरो जोन के संकट का समाधान नहीं हो सकता? उदाहरण के लिए इसका आशय यह हो सकता है कि यूरो जोन के ऋण के बारे में अनिश्चितता का समाधान नहीं होगा। इसका अभिप्राय यह है कि इस परिधि के अनेक देशों के लिए ब्याज की दरें ऊंची बनी रहेंगी। इसका तात्पर्य
यह है कि बैंकों द्वारा संप्रभु ऋणों के धारण का मूल्य मूल रूप से गिरेगा।
बैंक दबाव में होंगे। मूल रूप से यूरोपीय विकास दर नाटकीय रूप से धीमी हो जाएगी। यूरोप में क्रेडिट सीमित हो जाएगी। आपको तरलता की समस्या हो सकती है। इसमें से कुछ समस्याएं आनुमानिक हैं तथा कुछ वास्तविक हैं। इसका शेष विश्व पर प्रभाव पड़ेगा। यदि आप वित्तीय व्यवस्था
में बहुत अधिक अनिश्चितता पैदा करके इसके निर्बाध कामकाज में व्यवधान उत्पन्न करते हैं, तो मूल रूप से हर कोई निर्णय लेना बंद कर देता है तथा हम भी उसी तरह प्रभावित होंगे जिस तरह कोई अन्य प्रभावित होगा। हम अनन्य रूप से यूरोप पर निर्भर नहीं हैं।
इसलिए इस दृष्टि से स्पष्ट रूप से जिन देशों का 100 प्रतिशत व्यापार यूरोपीय देशों के साथ है वे उन देशों की तुलना में अधिक प्रभावित होंगे जिनका यूरोप के साथ 30 प्रतिशत व्यापार है। और हमारा व्यापार वास्तव में बहुत विविध है, जिसका तात्पर्य यह है कि जिस
किसी के साथ भी समस्या होगी उसका हम पर कुछ प्रभाव होगा। लेकिन यह बहुत बड़ा प्रभाव नहीं होगा।
परंतु हमें इसे कम करके नहीं आंकना चाहिए। मैं नहीं समझता कि विश्व ऐसी भंगुर स्थिति में है जो बस 2008 के संकट से उबर रहा है। और इस संकेत का अभिप्राय एक और संकट नहीं है कि सरकारें इन संकटों से निपटने में समर्थ नहीं है।
यदि आपके कहने का तात्पर्य यह है कि यदि ग्रीक चूक करता है परंतु बाकी अन्य लोग ठीक हैं, तो क्या घटित होगा, उत्तर बहुत भिन्न होगा। ग्रीक के लिए बहुत दुख है, लेकिन मैं नहीं समझता कि शेष विश्व के लिए इसके कोई मायने हैं। परंतु मैं समझता हूँ कि यदि आपका सामना
यूरो जोन के संकट से होता है, तो यह बड़ी खबर है और हम यह नहीं चाहते हैं।
प्रश्न: मैं अपने मूल प्रश्न पर वापस आना चाहता हूँ। शुरू में, भारत की तरफ से यह आवाज उठती रही है कि हम गरीब देश हैं, हम क्यों यूरो जोन के समृद्ध देशों की सहायता के लिए आगे आएं? परंतु आज आपकी बातों से ऐसा प्रतीत होता है
कि हालांकि कोई औपचारिक अनुरोध नहीं आया है तथा आगे का कोई रास्ता भी स्पष्ट नहीं है, मैं बस यह जानने का प्रयास कर रहा हूँ, फिर भी भारत यूरो जोन को स्थिर करने के लिए सहायता देने हेतु कदम उठाने के आह्वान का स्वागत करेगा। क्या यह सही है?
उपाध्यक्ष, योजना आयोग: मैंने जो कहा, वह यह था कि मेरी समझ से जी-20 के सदस्य के रूप में हमें वह सब करने के लिए अपनी ओर से तैयार रहना चाहिए जो यूरो जोन की सहायता के लिए अंतर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक है।
अब, चयन के मुद्दे यहां आते हैं। उदाहरण के लिए, स्वयं यूरोप द्वारा बहुत कुछ किया जा सकता है तथा उन्होंने ईएफएसएफ के माध्यम से तथा इसी तरह के अन्य चीजों के माध्यम से यह कार्य किया भी है। अब यदि ऐसी स्थिति आती है कि यूरोप का अकेले प्रयास पर्याप्त नहीं
है, तो मेरा निजी विचार यह है कि, हालांकि यह वास्तव में वित्त मंत्रालय का विषय है, किया जाने वाला तार्किक कार्य यह है कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष को इसमें शामिल किया जाए।
वास्तव में यह इसी के लिए है। हम अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के सदस्य हैं।
यदि ऐसी स्थिति बनती है जिसमें अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष यह कहे कि देखो, हमारे पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं तथा अधिक संसाधन जुटाने के लिए हमें सहायता की जरूरत है, तो मैं इस पक्ष में रहूंगा कि भारत यह कहे कि ऐसा करने में हम अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की सहायता
करेंगे। जब एनएबी की बात आई थी तब हमने लगभग 10 बिलियन डालर या ऐसी ही कुछ राशि का योगदान करके पिछली बार ऐसा किया था। दूसरी तरफ, अक्सर देशों की अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के पास जाने की इच्छा नहीं हो सकती है। लेकिन तब ऐसी सभी द्विपक्षीय डील करनी पड़ती है जिसे
वे स्वयं करना चाहते हैं। किसी ने भी हमसे किसी चीज के लिए नहीं कहा है।
इसलिए मैं बताने की स्थिति में नहीं हूँ। संस्थानिक रूप से मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि हमने लगातार कहा है कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष को ऐसा संगठन होना चाहिए, जो सुदृढ़ होने के साथ समान रूप से संचालित हो। स्पष्ट रूप से इसे अधिक समान रूप से संचालित बनाने
का सबसे अच्छा तरीका यह है कि जब समृद्ध देशों को सहायता की जरूरत हो, तो वे अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के पास जाएं क्योंकि उस समय अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जिन नियमों को लागू करेगा, वे ऐसे नियम होंगे जिन्हें वह बाद में लागू भी करेगा।
मैं यह कहने के बिल्कुल भी पक्ष में नहीं हूँ – यह भी मेरा विशुद्धत: निजी मत है, मुझे जानकारी नहीं है कि इस पर सरकार की राय क्या है – कि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष केवल गरीब देशों के लिए है तथा अन्य सभी को अपने बल पर चीजों का समाधान निकालना चाहिए। यह जी-20
की किसी भी प्रेस विज्ञप्ति की भावना नहीं है।
धन्यवाद।
(समाप्त)
नई दिल्ली
29 अक्तूबर, 2011